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________________ श्राद्धविधि/३०२ उसे देख सब लोग बोले-"यह क्या ?" शंखदत्त ने उन्हें कहा-"दुष्ट सर्प से डसी हुई होने के कारण किसी ने इसे जल में बहा दिया है" इस प्रकार कहकर उसने उस कन्या पर अभिमंत्रित जल का छिड़काव कर उसे जीवित कर दिया। . खुश होकर शंखदत्त बोला- "इस कन्या को मैंने जीवित किया है अतः अप्सरा जैसी इस कन्या के साथ मैं विवाह करूंगा।" श्रीदत्त ने कहा-"ऐसा मत बोलो। क्योंकि पहले से ही आधा-आधा देने की बात हो गयी है, अतः प्राधे के लिए तुम मेरा धन ले लो धे के लिए तुम मेरा धन ले लो। इसे तो मैं स्वीकार करूंगा।" इस प्रकार विवाद करते हुए उन दोनों ने मदनफल (काम) की अभिलाषा से अपनी प्रीति का वमन कर दिया। कहा भी है-"जिस प्रकार चाबी सुदृढ़ ताले को भी दो भागों में कर देती है उसी प्रकार अत्यन्त स्नेही बंधुओं के मध्य में भेद कराने वाली वस्तु स्त्री को छोड़ अन्य कोई नहीं है।" उन्हें वादी और प्रतिवादी की तरह विवाद करते देखकर नाविक ने कहा-"आप दोनों अभी शान्त (स्वस्थ) रहो। दो दिन में ही यह जहाज सुवर्णकूल नाम के बंदरगाह पर पहुँच जायेगा। वहाँ बुद्धिमान पुरुषों के द्वारा इस बात का निर्णय हो सकेगा।" यह बात सुनकर शंखदत्त तो स्वस्थ हो गया परन्तु श्रीदत्त चिन्तातुर हो सोचने लगा, "इसने कन्या को जीवित किया है अत: वे इसी को कन्या देंगे। अतः मैं कछ योजना ब प्रकार विचार कर दष्ट बुद्धिवाले उसने अपने मित्र शंखदत्त को विश्वास में ले लिया। र जहाज के छज्जे पर आकर बैठा, तब उसने मित्र को कहा--"मित्र! देखो, आठ मुह वाला मत्स्य जा रहा है” वहाँ आकर शंखदत्त कौतुक से जैसे ही देखने लगा वैसे ही श्रीदत्त ने उसे दुश्मन की तरह समुद्र में धकेल दिया। धिक्कार है ऐसी नहीं देखने योग्य स्त्री को। वह सुन्दरी होने पर खराब ही है कि जिसके लिए श्रेष्ठ मनुष्य भी मित्र-द्रोह कर लेते हैं । दुष्ट बुद्धि वाला श्रीदत्त इष्ट की सिद्धि से मन में खुश हुआ, परन्तु प्रात: बनावटी पुकार करने लगा-"अहो ! मेरा मित्र कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है ?" इस प्रकार निर्विष सर्प की भाँति निरर्थक फटाटोप करता हुआ बंदरगाह के तट पर आया। श्रीदत्त ने राजा को श्रेष्ठ हाथी भेंट किये। राजा ने भी खुश होकर उसका बहुमान किया और उसे हाथी का मल्य प्रदान किया एवं शल्क माफ कर दिया। श्रीदत्त गोदाम में माल भरके वहीं व्यापार करने लगा। उस कन्या के लग्न का मुहूर्त ग्रहण करके अपने घर पर सम्पूर्ण तैयारियां करने लगा । वह प्रतिदिन राजसभा में जाता। एक बार उसने राजा को चामर वींजने वाली एक अत्यन्त रूपवती स्त्री को देखा। उसने किसी को उसके बारे में पूछा तो उसे उत्तर मिला कि यह राजा के आश्रित मानवंती सुवर्णरेखा नाम की वेश्या है। 50000 द्रव्य लिये बिना यह किसी से बात भी नहीं करती है। यह बात सुनकर उसने उसे (वेश्या को) 50000 द्रव्य देना कबूल किया और उस वेश्या एवं कन्या को रथ में आरोपित कर जंगल में चला गया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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