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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / २८७ विचार किये किया गया कार्य, बिना सोचे-समझे रखी गयी धरोहर, बिना सोचे-समझे दिया गया दान, बिना विचार के आदर देना, बोलना, छोड़ना तथा खाना इत्यादि प्रपत्तियों का ही मूल है, अर्थात् बाद में व्यक्ति को पछताना ही पड़ता है। कहा भी है- "गुरणयुक्त अथवा गुणरहित कुछ भी कार्य को करने के पहले पंडित पुरुष को उसके परिणाम का अवश्य विचार करना चाहिए। जल्दबाजी में किये गये कार्य का मरणपर्यन्त हृदयदाही शल्यंतुल्य परिणाम होता है ।" राज्य की प्राशा छोड़कर चिन्तातुर बने हुए राजा को तोते ने कहा-' - "हे राजन् ! व्यर्थ की चिन्ता मत करो। मेरे वचनानुसार करने वाले का परिणाम खराब कैसे हो सकता है ? क्या होशियार वैद्य के कथनानुसार चिकित्सा करने से व्याधि कभी कष्ट देती है ? हे राजन् ! ऐसा मत मान लो कि मेरा राज्य चला गया। अभी तुम दीर्घकाल तक विशाल राज्य सुख के भोक्ता बनोगे ।" सुनकर मृगध्वज राजा को पुनः राज्यप्राप्ति की नैमित्तिक के समान तोते के वचनों को आशा दिखाई दी । ! उसी समय वन में लगी भाग की भाँति राजा ने बख्तर सहित चतुरंग सैन्य को प्राते हुए देखा । भयभीत होकर राजा ने सोचा- “ अहो शत्र ु के जिस सैन्य से मैं दीनता को प्राप्त हुआ, सचमुच वही सैन्य मेरे वध के लिए दौड़ता आ रहा है। मैं अकेला अपनी पत्नी की रक्षा कैसे करूंगा ? मैं इनसे कैसे लड़ूंगा ?" इस प्रकार राजा किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ, तभी "हे स्वामिन् ! जय हो । अपने सेवकों को प्रदेश करो, हाथ से भ्रष्ट निधि की तरह भाग्ययोग से हे स्वामिन् ! भ्रापके दर्शन हुए हैं। अपनी स्नेहपूर्ण दृष्टि से बालकों की तरह इन सेवकों पर कृपा करो” – इस प्रकार बोलती हुई अपनी ही सेना को देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । खुश होकर राजा ने सैनिकों से पूछा - "तुम यहाँ कैसे आये ?" उन्होंने कहा - " आप जब यहाँ पर आए तब हमने प्रापको देख लिया था । परन्तु हम यह नहीं जानते हैं कि हमें इतनी जल्दी कौन व कैसे यहाँ ले आया ? हे राजन् ! भाग्ययोग से यह कोई दिव्य अनुभव ही है ।" इस प्रकार विश्व को प्राश्चर्य करने वाली इस घटना को सुनकर राजा ने मन में ही तर्क किया - "देव की तरह तोते की यह कैसी सत्यवाणी है ? अनेक प्रकार से उपकार करने वाला यह तोता सम्माननीय है । मैं इसका कैसे प्रत्युपकार करूं । इसने मुझ पर बहुत सा उपकार किया है, मैं इसके ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकता ।” कहा भी है--" बहुत सा प्रत्युपकार करने पर भी पूर्व के उपकारी की तुलना नहीं हो सकती । क्योंकि प्रत्युपकार करने वाला तो किये हुए उपकार के बदले में उपकार करता है, जबकि पूर्व में उपकार करने वाला तो निष्कारण ही उपकार करता है ।" इस प्रकार प्रीति से राजा ने उस तोते पर दृष्टि डाली परन्तु प्रातः काल में नष्ट हुए बुध के तारे की तरह उसे वह तोता कहीं दिखायी नहीं दिया । राजा ने सोचा- “मेरे प्रत्युपकार के भय से वह निश्चित ही उपकार करके कहीं दूर चला गया लगता है । कहा भी है- "बुद्धिमान पुरुषों की यह अलौकिक और बहुत बड़ी कठोरता है कि वे दूसरों के प्रत्युपकार के भय से उपकार करके कहीं दूर चले जाते हैं ।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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