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________________ श्राद्धविधि/२८६ आये और आपकी धरोहर की तरह यह कन्या मैंने आपको प्रदान की और दूसरी बात मैं कुछ नहीं जानता हूँ।" इतना कहकर ऋषि चुप हो गये। राजा भावी के बारे में सोचने लगा, तभी समयज्ञ की तरह वह तोता आकर पुनः बोला-"राजन् ! आओ! प्रायो, मैं तुम्हें मार्ग दिखलाता हूँ। मैं पक्षी होने पर भी आश्रित जन की उपेक्षा नही करूंगा।" अपना आश्रित क्षुद्र हो तो भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए तो फिर बड़ों की उपेक्षा तो कैसे की जाय ? क्या चन्द्रमा अपनी गोद में से बाल शिशु को छोड़ता है ?" __ "हे राजन् ! तुम आर्यों में अग्रणी होने पर भी अनार्य की तरह मुझे अचानक भूल गये परन्तु मैं क्षुद्र होने पर भी प्रक्षुद्र की तरह तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ ?" उसके बाद आश्चर्यमुग्ध बना राजा, ऋषि की अनुज्ञा लेकर पत्नी सहित घोड़े पर चढ़ गया और उस तोते के पीछे-पीछे चलने लगा। ___इस प्रकार उत्सुकता से तोते के पीछे-पीछे चलते हुए उसे क्षितिप्रतिष्ठित नगर दृष्टिगोचर हुआ। इतने में वह पोपट किसी वृक्ष पर चढ़कर स्थिर हो गया। तब शंकित मन वाले राजा ने उस पोपट से आग्रहपूर्वक पूछा-"नगर का महल, परकोटा आदि दिखाई दे रहा है, फिर भी नगर तो काफी दूर है। हे पोपट ! तुम अप्रसन्न होकर यहाँ क्यों रुक गये।" हुंकार करके उस तोते ने कहा-"हाँ! यहाँ रुकने का बड़ा कारण है। बुद्धिमानों की कुछ भी प्रवृत्ति बिना कारण नहीं होती है।" सम्भ्रान्त बने राजा ने पूछा-"बताओ, क्या कारण हैं ?" पोपट ने कहा-“हे राजन् ! सुनो! सही बात कहता हूँ-चन्द्रपुरी के राजा चन्द्रशेखर की बहिन जो तेरी अत्यन्त प्यारी पत्नी है, वह मुख में मधुर और भीतर से अत्यन्त दुष्ट गोमुखव्याघ्री के समान है। जल के समान स्त्री की भी प्रायः विषम गति होती है। तुम विरक्त की तरह राज्य छोड़कर दूर चले गये हो। इस प्रकार तुम्हें दूर गया जानकर छल को प्राप्तकर शाकिनी की तरह उसने शीघ्र ही अपने भाई को सूचना दे दी कि राज्य पाने के लिए यह अच्छा अवसर है। अपने इष्ट की सिद्धि के लिए कपट ही कमजोर पुरुषों का बल है। उसके बाद चतुरंग बल के साथ वह चन्द्रशेखर तुम्हारे राज्य को ग्रहण करने के लिए आ गया। भला, हाथ में आये राज्य को कौन छोड़ता है ? मध्यस्थ सैनिकों ने शीघ्र ही नगर के द्वार बन्द कर दिये। सर्प जिस तरह अपने देह से धन को घेर लेता है, उसी प्रकार उसने भी नगर को चारों ओर से घेर लिया। नगर के भीतर रहे हुए तुम्हारे पराक्रमी सैनिक चारों ओर से शत्रुओं से लड़ रहे हैं परन्तु नायक बिना सेना दुर्बल है। ऐसी स्थिति में हम नगर में कैसे जा सकेंगे? इसी विचार से हे राजन् ! मैं दुःखी हृदय से यहाँ बैठा हूँ।" तोते के मुख से इन हृदय-विदारक समाचारों को सुनकर राजा के मन में सन्ताप पैदा हुमा। राजा के मन में चिन्ता होने लगी-"अहो ! दुश्चरित्र स्त्रियों के हृदय की दुष्टता को धिक्कार हो। अहो ! उसका भी यह कैसा साहस ? अहो ! उसको मन में थोड़ा भी भय नहीं ? अहो ! स्वामी के राज्य में भी उसकी कैसी तृष्णा है ? अहो ! अन्याय में उसकी कसी निष्ठा है ? अथवा उसका भी क्या दोष है ? शून्य राज्य को ग्रहण करने की इच्छा कौन नहीं करता है ? खेत में कोई रक्षक न हो तो क्या सुअरों के द्वारा उस खेत का अनाज नहीं खाया जाता है ? विचारशून्यता वाले मुझे धिक्कार हो। कार्यविधि में अविवेक समस्त प्रापत्तियों का मूल है। बिना
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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