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________________ श्राद्धविधि/२७० उसके बाद उसने दीक्षा स्वीकार की। समाधिपूर्वक मरकर, ब्रह्मन्द्र देव बना और उसने वज्रमृतिकामय नेमिनाथ प्रभु की प्रतिमा तैयार कराकर दस सागरोपम तक उसकी पूजा की। ___अपने आयुष्य की समाप्ति के समय स्वताचल तीर्थ में रत्न, मरिण और स्वर्ण के जिनबिम्ब से युक्त तीन गर्भगृहों का निर्माण कराकर उसके आगे कांचनबलानक बनाया और उसमें वह (वज्रमय) बिम्ब स्थापित किया। क्रमश: रत्न संघपति विशाल संघ के साथ यात्रा के लिए वहाँ आया। हर्ष के उत्कर्ष से स्नात्र महोत्सव करने पर लेप्यमय बिम्ब गल गया। यह देख रत्न संघपति को अत्यन्त खेद हुआ। उसने आठ उपवास किये। अम्बिका देवी प्रसन्न हुई और उसके वचन से काञ्चनबलानक में से कच्चे सूत से विटलाई हुई वह वज्रमय प्रतिमा लायी गयी। चैत्यद्वार पर आने पर पीछे देख लेने के कारण वह प्रतिमा वहीं स्थिर हो गयी। उसके बाद चैत्यद्वार को बदल दिया गया, जो आज भी वैसा ही है । कितनेक आचार्य कहते हैं- 'कांचनबलानक में अरिहन्त की बहोत्तर प्रतिमाएँ थीं। उसमें अठारह सोने की, अठारह रत्न की, अठारह चांदी की और अठारह पाषाण की थीं।" प्रतिष्ठा-अंजनशलाका ॥ प्रतिमा की प्रतिष्ठा शीघ्र करानी चाहिए। षोडशक में कहा है-"तैयार हुए जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा शीघ्र ही दस दिन के भीतर करा देनी चाहिए। वह प्रतिष्ठा संक्षेप में तीन प्रकार की है(1) व्यक्तिप्रतिष्ठा (2) क्षेत्रप्रतिष्ठा और (3) महाप्रतिष्ठा । आगम के ज्ञाता पुरुष कहते हैं कि जिस समय में जिस तीर्थंकर का शासन चलता हो, वह पहली व्यक्तिप्रतिष्ठा है। __ ऋषभदेव आदि चौबीस की क्षेत्रप्रतिष्ठा कहलाती है तथा एक सौ सित्तर जिनेश्वर की महाप्रतिष्ठा कहलाती है। बृहद् भाष्य में भी कहा है-"एक जिनेश्वर की व्यक्तिप्रतिष्ठा, चौबीस जिनेश्वर की क्षेत्रप्रतिष्ठा तथा एक सौ सित्तर जिनेश्वर की महाप्रतिष्ठा समझनी चाहिए। प्रतिष्ठा-विधि-प्रतिष्ठा की सभी प्रकार की सामग्री इकट्ठी करना, अनेक संघों एवं गुरुओं आदि को आमन्त्रण देकर बुलाना, उनके प्रवेश आदि का भव्य महोत्सव करना, भोजन, वस्त्र आदि से उनका अच्छी तरह से सत्कार करना, बंदीजनों को मुक्त करना, हिंसा का निवारण करना, अवारित दानशाला चलाना, सुथार आदि मन्दिर-निर्माताओं का सत्कार करना, बड़े ठाठ और संगीत आदि के साथ अद्भुत भव्य महोत्सव करना, अठारह स्नात्र करना इत्यादि विधि प्रतिष्ठाकल्प आदि से जान लेनी चाहिए। श्राद्ध समाचारी वृत्ति में कहा है-"प्रतिष्ठा में स्नात्र अभिषेक द्वारा जन्मावस्था का चिन्तन करना चाहिए। फल, नैवेद्य, पुष्प, विलेपन तथा संगीत आदि बाह्य आडम्बर द्वारा प्रभु की कुमार आदि उत्तरोत्तर अवस्था का चिन्तन करना चाहिए।" छद्मस्थता सूचक वस्त्र से शरीर-आच्छादन आदि उपचार द्वारा प्रभु की शुद्ध चारित्र अवस्था का चिन्तन करना चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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