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________________ श्राद्धविधि/२६६ क्रमशः उदायन और चण्डप्रद्योत का युद्ध हुआ। युद्ध में रथ का ही संकेत होने पर भी चण्डप्रद्योत अनिलवेग हाथी पर बैठकर आया। प्रतिज्ञाभंग का दोष चण्डप्रद्योत को भारी पड़ा। उदायन ने पैर में जखमी हाथी के नीचे गिरने पर, चण्डप्रद्योत को बाँधकर उसके भाल पर 'दासीपति' की मोहर लगा दी। उसके बाद वह उस प्रतिमा को लेने के लिए विदिशा में गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी वह प्रतिमा वहाँ से चलित नहीं हुई और बोली-“वीतभय नगर में धूल की वृष्टि होगी, इसीलिए मैं नहीं आती हूँ।" उसके बाद जब उदायन वापस लौटा, तब वर्षा हो जाने से बीच में ही पड़ाव करके रहा । वार्षिक पर्व (संवत्सरी) के दिन उदायन राजा के उपवास था। अतः रसोइये ने चण्डप्रद्योत को रसोई के लिए पूछा तब विषमिश्रण के भय से उसने कहा-"अच्छा याद दिलाया, मेरे भी आज उपवास है। मेरे माता-पिता श्रावक थे।" उदायन ने कहा- “उसके श्रावकपने को जान लिया है। फिर भी वह ऐसा कहता है तो वह नाम से भी सार्मिक है, अतः जब तक यह बन्धन में होगा, तब तक मेरा पर्व-प्रतिक्रमण शुद्ध कैसे हो सकेगा?" इस प्रकार विचार कर चण्डप्रद्योत को बन्धन से मुक्त कर दिया और उससे क्षमायाचना कर भाल पर पट्टबन्ध कराकर उसे अवन्तीदेश सौंप दिया। अहो! उदायन की धार्मिकता व सन्तोषनिष्ठा कितनी है ! वर्षा के बाद उदायन वीतभय नगर में गया। सेना के स्थान पर आये हुए वणिक लोकों के निवास से दशपुर नगर की स्थापना हुई। प्रद्योतन राजा ने वह नगर जीवितस्वामी की पूजा के लिए दिया। विदिशा नगर का भायल स्वामी के नाम से भायलपुर नाम रखा तथा दूसरे भी बारह हजार गाँव जीवन्तस्वामी की भक्ति में प्रदान किये। एक बार प्रभावतीदेव की सूचना से कपिल ऋषि के द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा की पूजा करने वाले उदायन राजा को पाक्षिक पौषध में रात्रिजागरण के समय दीक्षा की भावना पैदा हुई। उसने उस प्रतिमा की पूजा के लिए बहुत से गाँव, आकर (खान), नगर आदि प्रदान किये और "राज्य तो नरक देने वाला है अतः प्रभावती के पुत्र अभीचि को कैसे दू?" इस प्रकार विचार कर केशी नाम के अपने भाणेज को राज्य दिया। उसी के द्वारा किये गये महोत्सवपूर्वक वीर प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। एक बार अकाल एवं अपथ्य आहार के कारण चरम राजर्षि उदायन को महाव्याधि उत्पन्न हई। 'शरीर तो धर्म का पहला साधन है'-इस प्रकार जानकर वैद्य के कथन से दही के लिए वे गोकुल वाले गाँवों में स्थिरता करते हुए क्रमशः वीतभय नगर में पधारे। केशी राजा उनका भक्त था, परन्तु दुश्मन मंत्री ने राजा को व्युद्ग्राहित करते हुए कहा-"चारित्र से पतित उदायन राज्य लेने के लिए आ रहा है। अतः इसे किसी उपाय से खत्म कर देना चाहिए।" राजा ने मंत्री की बात मानकर उदायन राजर्षि को विषमिश्रित दही प्रदान किया। परन्तु देव ने उस दही को विष रहित कर दिया और दही लेने का निषेध कर दिया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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