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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / २५७ विधिपूर्वक बने हुए एवं विधिपूर्वक प्रतिष्ठित श्री मुनिसुव्रत स्वामी के स्तूप की महिमा से प्रबल सैन्य वाला कोरिणक भी वैशाली नगरी को बारह वर्ष तक ग्रहण न कर सका और चारित्रभ्रष्ट कूलवालक मुनि के कथन से स्तूप को गिराने से वह तुरन्त ही उस नगरी को अपने अधीन कर सका । इस प्रकार घर की तरह दुकान भी अच्छे पड़ौसी को देखकर, न प्रतिगुप्त व न प्रतिप्रगट स्थान में अल्प द्वार आदि गुणों से युक्त बनाने से त्रिवर्ग की सिद्धि होती है । विद्याग्रहण 5 विद्याप्राप्ति भी त्रिवर्ग की सिद्धि में कारणभूत है, अतः लेखन, पठन, व्यापार तथा धर्मादि कलानों का अच्छी तरह से अध्ययन करना चाहिए । कलाओं का अच्छी तरह से अभ्यास नहीं किया जाय तो मूर्खता व उपहास के द्वारा कदमकदम पर पराभव पाते हैं। जैसे कालिदास कवि पहले ग्वाला था, उस समय राजसभा में स्वस्ति के स्थान पर 'उशटर' बोलने के कारण हँसी का पात्र हुआ था। उसके बाद उसे ग्रन्थशोधन तथा चित्रसभादर्शन का कार्य दिया गया । उसमें भी उसकी हँसी हुई । कलावान को वसुदेव आदि की तरह विदेश में भी मान प्राप्त होता है । कहते हैं- "विद्वत्ता व नृपत्व में कभी भी समानता नहीं है, क्योंकि राजा अपने देश में ही पूजा जाता है, जबकि विद्वान् सर्वत्र पूजा जाता है ।" सभी कलाओं को सीखना चाहिए। क्षेत्र - काल आदि से उन सब कलाओं का प्रसंग पर विशेष उपयोग हो सकता है, अन्या तकलीफ भी आ जाती है । कहा है- " अट्टम (निरर्थक) भी सीखना चाहिए। सीखा हुआ कभी बेकार नहीं जाता है । ॐ 'अट्टमट्ट' के प्रभाव से गुड़ एवं तुम्बे खाने को मिले हैं ।" सकल कलाओं का अभ्यास किया हो तो पूर्वोक्त सात प्रकार की आजीविका के उपायों में से किसी भी उपाय से सुखपूर्वक निर्वाह कर सकते हैं तथा समृद्ध भी बन सकते हैं । सभी कलानों को सीखने में असमर्थ हो तो जिससे इस जीवन में सुखपूर्वक निर्वाह हो सके और परलोक में सद्गति हो सके, ऐसी कलाएँ अवश्य सीखनी चाहिए। कहा है "श्रुतसागर तो अपार है और आयुष्य थोड़ा है और प्राणी मन्द बुद्धिवाले हैं । अतः उतना सीख लेना चाहिए जो थोड़ा और उपयोगी हो ।" इस जीवलोक में, उत्पन्न हुए अपना सुखपूर्वक निर्वाह होता हो और मूल माथा में 'उचित' पद का स्वतः निषेध हो जाता है । 導 व्यक्ति को दो बातें अवश्य सीखनी चाहिए - ( 1 ) जिससे (2) जिस कर्म से मरने के बाद सद्गति होती हो । निर्देश होने से निन्द्य व पापमय कर्म से जीवन-निर्वाह का इसकी कथा उत्तराध्ययन के पांचवें अध्ययन की गाथा सं. 8 की प्र. शान्तिसूरिजी की टीका में है, पृ. सं. 245 1
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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