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________________ श्राद्धविधि / २५६ जितने से कुटुम्ब आदि का सुखपूर्वक निर्वाह हो सकता हो और लोक में भी शोभा लगे, उतना ही घर का विस्तार करना चाहिए । सन्तोष धारण न कर अधिकाधिक विस्तार ही किया जाय तो व्यर्थ ही धन का व्यय और आरम्भ आदि हो जाता है । उपर्युक्त प्रकार का घर भी अल्प द्वार वाला ही उचित है। घर के बहुत से द्वार हों तो दुष्ट लोकों के श्रागमन व निर्गमन का पता नहीं लगने के कारण स्त्री तथा धन आदि की हानि की सम्भावना रहती है । अल्प द्वार वाला घर भी मजबूत कपाट उल्लालक श्रृंखला व अर्गला आदि से सुरक्षित होना चाहिए अन्यथा पूर्वोक्त दोषों की ही सम्भावना रहती है । कपाट आदि भी सुखपूर्वक दे सकें तथा खोले जा सकें, ऐसे होने चाहिए । अन्यथा अधिकाधिक जीव- विराधना एवं शीघ्र गमनागमन के कार्य में तकलीफ पैदा होती है । दीवार में रहने वाली अर्गला उचित नहीं है, क्योंकि इससे पंचेन्द्रिय जीव आदि की भी विराधना की सम्भावना रहती है। इस प्रकार के कपाट आदि भी जीव जन्तु आदि देखकर यतनापूर्वक खोलने या बंद करने चाहिए । इसी प्रकार पानी की नाली, खाल आदि में भी यथाशक्ति यतना रखनी चाहिए। अल्पद्वार आदि के लिए शास्त्र में भी कहा है "जहाँ वेध आदि दोष न हों, जहाँ समस्त दल ( ईंट आदि) नवीन हों, जहाँ बहुत दरवाजे न हों, जहाँ धान्य का संग्रह हो, जहाँ देवताओं की पूजा होती हो, जहाँ सावधानीपूर्वक जल सिंचन किया जाता हो, जहाँ लाल पर्दा हो, जहाँ व्यवस्थित सफाई होती हो, जहाँ छोटे-बड़े की मर्यादानों का पालन होता हो, जहाँ सूर्य किरणों का भीतर प्रवेश न होता हो, जहाँ दीपक प्रकाशित रहता हो, जहाँ रोगियों की सेवा होती हो, जहाँ थके हुए की मालिश होती हो, उस घर में लक्ष्मी का वास होता है ।" इस प्रकार देश, काल, अपने वैभव तथा जाति आदि औचित्यपूर्वक तैयार किये घर को विधिपूर्वक स्नात्रपूजा, साधर्मिक वात्सल्य व संघपूजा आदि करके उपयोग में लेना चाहिए । घर के निर्माण व प्रवेश आदि के समय सुन्दर मुहूर्त व शकुन आदि के बल को अवश्य देखना चाहिए । इस प्रकार विधिपूर्वक बने हुए घर में लक्ष्मी की वृद्धि आदि दुर्लभ नहीं है । सुना जाता है कि उज्जयिनी नगरी में दांताक नाम के सेठ ने अठारह करोड़ स्वर्ण का व्यय करके वास्तुशास्त्र आदि में निर्दिष्ट विधि से सात मंजिल का भवन तैयार किया था । रात्रि में उस महल में 'गिरता हूँ, गिरता हूँ' इस प्रकार की ध्वनि सुनाई दी। इसे सुनकर सेठ डर गया और उतना ही मूल्य लेकर वह महल विक्रमराजा को सौंप दिया। विक्रमराजा ने महल ले लिया और उसी रात्रि में स्वर्णपुरुष गिरा । 555 किवाड़ में पुराने ढंग की लकड़ी की खड़ी चिटकनी जिसे गुजराती में 'उलालो' कहते हैं ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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