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________________ श्राद्धविधि / २४० स्वीकार करता हुआ, अत्यधिक कुकुम (केसर) के जल से अभिसिक्त हुआ है आगे का भूतल जिसका ऐसा वह रथ क्रमशः सम्प्रति राजा के द्वार तक आया । रथ की पूजा के लिए सम्प्रति राजा भी पनस के फल की भाँति रोमांचित देहवाला वहाँ आया । श्रानन्द रूपी सरोवर में हंस की भाँति क्रीड़ा करने वाले सम्प्रति राजा ने रथ में आरूढ़ प्रतिमा की प्रष्टप्रकारी पूजा की । माता के मनोरथ की पूर्ति के लिए महापद्म चक्रवर्ती ने भी अत्यन्त प्राडम्बरपूर्वक रथयात्रा की थी । * कुमारपाल की रथयात्रा * चैत्र मास की अष्टमी के दिन चौथे प्रहर में गतिमान मेरुपर्वत की भाँति जिनेश्वर का स्वर्ण का रथ आगे बढ़ता है । रथ स्वर्ण के दण्ड, ध्वजा, छत्र व चामर आदि से सुशोभित है । हर्षपूर्वक मिले हुए नगरजन भी प्रानन्दपूर्वक जय-जयकार कर रहे थे । स्नान, विलेपन व फूलों के समूह से पूजित पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को कुमार-विहार के द्वार पर महाजन अत्यन्त ऋद्धिपूर्वक स्थापित करते हैं । वाद्ययंत्र की ध्वनि से आकाशमंडल गूंज उठा था । उस यात्रा में सुन्दर स्त्रीगरण नृत्य कर रही थीं, ऐसा वह रथ सामन्तों व मंत्रियों के साथ राजा के भवन के पास आया। राजा भी रथ में रही प्रतिमा की पट्टवस्त्र व सोने के आभूषणों से स्वयं पूजा करता है और विविध नाटक कराता है। वह रथ एक रात्रि वहाँ रह कर, बाहर निकलकर सिंहद्वार के बाहर ध्वजा वाले मंडप में ठहरता है । वहाँ पर प्रभात काल में राजा रथ की जिनप्रतिमा की पूजा करके चतुविध संघ के साथ आरती करता है । उसके बाद हाथियों से जुता हुआ वह रथ स्थान-स्थान पर बँधे हुए पटमण्डपों 'ठहरता हुआ नगर में घूमता है । तीर्थयात्रा - श्री शत्रुंजय, गिरनार आदि तीर्थं कहलाते हैं । तीर्थंकर की जन्म, दीक्षा, ज्ञान निर्वाण व विहार भूमि भी अनेक भव्य जीवों के शुभभावों की उत्पत्ति में कारणभूत होने एवं संसारतारक होने से तीर्थ कहलाती है । सम्यग्दर्शन की विशुद्धि व प्रभावना आदि के लिए विधिपूर्वक उन तीर्थों की यात्रा के लिए जाने को तोर्थयात्रा कहते हैं । तीर्थयात्रा विधि - तीर्थयात्रा दरम्यान एकाशना, सचित्तत्याग, भूमिशयन, ब्रह्मचर्यपालन आदि कठिन अभिग्रहों का प्रारम्भ से ही पालन करना चाहिए । पालकी, घोड़े, पलंग आदि समग्र ऋद्धि होने पर भी समृद्ध श्रावक को भी शक्ति हो तो पेदल चलना ही उचित है । ग्रन्थकार ने कहा है- "यात्रा में एकल प्रहारी, सम्यक्त्वधारी, भूशयनकारी सचित्तपरिहारी, पदचारी व ब्रह्मचारी रहना चाहिए ।" लौकिक ग्रन्थों में कहा गया है--- “यात्रा में वाहन में बैठने से तीर्थयात्रा का आधा फल नष्ट हो जाता है, जूते पहनने से
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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