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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२३९ पास प्रतिदिन बहोत्तर हजार टंक का खर्च कराकर सार्मिक वात्सल्य कराता था। इस प्रकार उस सेठ के प्रतिवर्ष तीन सौ साठ सार्मिक वात्सल्य होते थे। थराद में श्रीमाली आभू संघपति ने तीन सौ साठ सार्मिकों को अपने समान किया था। कहा है-"उस स्वर्णपर्वत अथवा रजतपर्वत से भी क्या मतलब है, जिसके आश्रित वृक्ष, वृक्ष ही रहते हैं। मैं तो मलयाचल पर्वत को ही पर्वत मानता हूँ जहाँ के आम, नीम व कुटज के वृक्ष भी चन्दनमय होते हैं।" सारंग सेठ अपने पास पंच परमेष्ठी मंत्र का पाठ करने वालों को सभी को स्वर्णटंक देता था । एक चारण को पुनः पुनः कहने पर उसने नौ बार नवकार पढ़ा तो उसे नौ स्वर्ण मुद्राएँ दीं। (३) यात्रात्रिक श्रावक को प्रतिवर्ष जघन्य से भी एक-एक यात्रा अवश्य करनी चाहिए। यात्रा तीन प्रकार की है। कहा भी है:-(1) अष्टाह्निक यात्रा। (2) रथयात्रा और (3) तीर्थयात्रा। बुध पुरुषों ने ये तीन यात्राएँ कही हैं। इनमें अष्टाह्निका का स्वरूप तो पहले कह चुके हैं। उनमें विस्तारपूर्वक समस्त चैत्यों की परिपाटी करने को अष्टाह्निक-यात्रा कहते हैं, इसे चैत्ययात्रा भी कहते हैं। . हेमचन्द्राचार्य जी ने परिशिष्ट पर्व में रथयात्रा का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-सुहस्ती प्राचार्य भगवन्त जब अवन्ती में बिराजमान थे. तब संघ ने एक बार चैत्ययात्रा था। भगवान सहस्ती प्राचार्य भी प्रतिदिन संघ के साथ चैत्ययात्रा में आकर मण्डप को अलंकृत करते थे। सुस्ति सूरि म. का अत्यन्त लघु शिष्य के जैसा सम्प्रति राजा भी हाथ जोड़कर सामने बैठता था। यात्रा उत्सव के अन्त में संघ ने रथयात्रा की थी। रथयात्रा से ही यात्रोत्सव सम्पूर्ण होता है। रथयात्रा के समय सूर्य के रथ की उपमा वाला एवं स्वर्ण-मारिणक्य की कान्ति से दिशाओं के मुख को प्रकाशित करने वाला रथ रथशाला में से बाहर लाया गया। विधि को जानने वाले एवं समृद्ध श्रावकों ने रथ में रही अरिहन्त की प्रतिमा की स्नात्रपूजा आदि प्रारम्भ की। अरिहन्त परमात्मा का अभिषेक करते समय, प्रभु के जन्मकल्याणक प्रसंग पर मेरुपर्वत से गिरने वाले जल की भाँति रथ में से स्नात्रजल नीचे गिरने लगा। मानों प्रभु से विज्ञप्ति करने के इच्छुक न हों, इस प्रकार मुखकोश बाँधकर श्रावकों ने सुगन्धित द्रव्यों से प्रतिमा का विलेपन किया। मालती तथा कमल आदि की मालाओं से जब उस प्रतिमा की पूजा की गयी तब वह प्रतिमा शरद् ऋतु के बादलों से प्रावृत चन्द्रकला की भाँति शोभने लगी। जलते हुए अगरु आदि के धुएँ की रेखाओं से प्रावृत वह प्रतिमा मानों नील वस्त्र से पूजित न हो, इस प्रकार शोभने लगी। - देदीप्यमान औषधियों के समुदाय वाले पर्वत के शिखर का अनुकरण करने वाली, जलती हुई शिखाओं वाली प्रारती से श्रावकों ने प्रभु की आरती की। उसके बाद श्री अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार कर अश्व की भांति रथ के आगे होकर उन श्रावकों ने उस रथ को खींचा। स्त्रियाँ घेरा बनाकर नाच के साथ रासड़े ले रही थीं तथा चारों ओर श्राविकाएँ मंगल गीत गा रही थीं तब चार प्रकार के वाजित्र बजने के कारण सुन्दर दिखने वाला, हररोज प्रत्येक घर से विविध पूजा को
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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