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________________ श्राद्धविधि/२३६ • प्रशन चतुष्क- (1) अशन (2) पान (3) खादिम और (4) स्वादिम । • वस्त्र चतुष्क- (1) वस्त्र (2) पात्र (3) कम्बल और (4) पाद पोंछनक । • सुई चतुष्क- (1) सुई (2) उस्तरा (3) नख छेदक (4) कर्णशोधक । इसी प्रकार श्रावक-श्राविका रूप संघ का भी यथाशक्ति भक्तिपूर्वक सत्कार करना चाहिए। देव और गुरु आदि के गुणगान करने वाले याचक आदि का भी यथोचित सम्मान करना चाहिए। संघपूजा तीन प्रकार की है- (1) उत्कृष्ट (2) मध्यम और (3) जघन्य। चतुर्विध संघ को पहेरामणी करने से उत्कृष्ट तथा सूत आदि से जघन्य और शेष मध्यम कहलाती है। अधिक व्यय करने की शक्ति नहीं होने पर भी गुरु को सूत की मुहपत्ती आदि देकर तथा दोतीन श्रावक-श्राविकानों को सुपारी आदि देकर भी प्रतिवर्ष संघपूजा के इस कृत्य को अवश्य करना चाहिए । गरीब के लिए उतना पालन करना भी महाफलदायी है। कहा है-“सम्पत्ति होने पर नियम करना, शक्ति होने पर भी सहन करना, युवावस्था में व्रत स्वीकार करना तथा दारिद्रय अवस्था में थोड़ा भी दान देना महान् लाभ के लिए होता है।" मंत्री वस्तुपाल आदि प्रत्येक चातुर्मास में सर्वगच्छ के संघ की पूजा करते थे और धर्म के कार्यों में बहुत-सा धन व्यय करते थे। दिल्ली में जगसी सेठ का पुत्र महणसिंह तपागच्छ के अधिपति श्री देवसुन्दर सूरि का भक्त था। उसने एक ही संघपूजा में समस्त संघ की भक्ति करते हुए चौरासी हजार सोना मोहर का व्यय किया था। दूसरे ही दिन पण्डित देवमंगलगरिण के प्रवेश समय संक्षिप्त संघपूजा में छप्पन हजार टंक का खर्च किया था। पहले महणसिंह ने ही गुरुदेव को प्रामंत्रण भेजा था और प्राचार्य गुरुदेव ने ही देवमंगल गणि को भेजा था। (२) सार्मिक वात्सल्य सभी सार्मिकों का अथवा अपनी शक्ति के अनुसार कुछ सार्मिकों का वात्सल्य अवश्य करना चाहिए। समान धार्मिक की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। ग्रन्थकार ने कहा है-"सभी ने सभी के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध प्राप्त किये हैं, परन्तु सार्मिक के सम्बन्ध को पाने वाले तो बहुत थोड़े ही होते हैं।" सार्मिक का सम्बन्ध महान् पुण्य के लिए होता है तो फिर उसके अनुरूप सेवा-भक्ति करें तो महान् पुण्यबन्ध हो इसमें क्या आश्चर्य है। कहा है-“एक ओर सारा धर्म हो और दूसरी ओर सिर्फ सार्मिक वात्सल्य हो। बुद्धि रूपी तराजू से तौलने पर वे दोनों तुल्य कहलाते हैं।" सार्मिकों की सेवा-भक्ति इस प्रकार करनी चाहिए। अपने पुत्रादि के जन्मोत्सव पर अथवा विवाह आदि अन्य प्रसंगों पर सार्मिकों को आमंत्रण देना चाहिए और विशिष्ट भोजन, तांबूल, वस्त्र-ग्राभरणादि देने चाहिए तथा प्रापत्ति में हो तो मान मर्ची र तथा आपत्ति में हों तो अपना धन खर्च करके भी उनका उद्धार करना चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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