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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२३१ दिन में दो अथवा तीन बार पूजा, अष्ट प्रकारी पूजा, सम्पूर्ण देव-वन्दन, मन्दिर में सर्वबिम्बों की पूजा अथवा वन्दन, स्नात्र पूजा, महापूजा, प्रभावना, गुरु को द्वादशावर्त वन्दन, प्रत्येक साधु को वन्दन, चौबीस लोगस्स का कायोत्सर्ग, नवीन ज्ञानार्जन, सेवा, ब्रह्मचर्य, उचित जल-पान, सचित्त त्याग, बासी द्विदल (दलहन). बासी पडी. पापड, बडी ग्रादि सखे शाक, तन्दलीयक आदि की भाजी, खारक, खजूर, द्राक्ष, खांड, सूठ आदि का फूलन, कुथु, ईलिका आदि जीवों की उत्पत्ति की सम्भावना होने से त्याग करें। औषध आदि विशेष कार्य हेतु लेनी पड़े तो अच्छी तरह से साफ कर यतनापूर्वक लेनी चाहिए । शक्ति अनुसार खाट, स्नान, केश-सज्जा, दातुन, जूते आदि का त्याग करना चाहिए। भूमिखनन, वस्त्रों को रंगना, गाड़ी आदि चलाना तथा दूसरे गाँव जाने का त्याग करना चाहिए। - घर, हाट, दीवार, स्तम्भ, खाट, कपाट, पाट, पाटला, सीका तथा घी, तेल व पानी के बर्तन तथा अन्य बर्तन, ईंधन, धान्य आदि सभी वस्तुमों को लीलफूल की उत्पत्ति से बचाने के लिए किसी को चूना लगायें, किसी को राख लगायें, किसी का मैल दूर करें, किसी को धूप में सुखायें तथा ठण्डे व नमी वाले स्थान पर न रखें। पानी को दो-तीन बार छानना चाहिए। घी, तेल, गुड़, छाछ, जल आदि के बर्तन अच्छी तरह से ढककर रखने चाहिए। अवश्रावण (चावल वगैरह का धोवन) तथा स्नान जल को भी जहाँ पर लीलफूल न हो वैसी भूमि पर थोड़ा-थोड़ा डालना चाहिए। चूल्हे व दीपक को खुला न रखें। कूटने, पीसने, पकाने, तथा वस्त्र-बर्तन आदि साफ करते समय बराबर देखना चाहिए तथा चैत्यशाला आदि की प्रावश्यक मरम्मत भी यतनापूर्वक करनी चाहिए। उपधान, मास आदि प्रतिमा, कषायजय, इन्द्रियजय, योगशुद्धि, वीश-स्थानक, अमृतअष्टमी, ग्यारह अंग, चौदह पूर्व प्रादि तप तथा नमस्कारफल तप, चौबीसी तप, अक्षयनिधि तप, दमयन्ती तप, भद्रश्रेणी तप, महाभद्रश्रेणी तप, संसारतारण तप, अदाई तप, पक्षक्षमण, मासक्षमण आदि तपस्याएँ यथाशक्ति करनी चाहिए। रात्रि में चौविहार तथा तिविहार का पच्चक्खाण करना चाहिए। पर्व दिनों में विगई का त्याग तथा पौषध उपवास प्रादि करने चाहिए । पारणे में अतिथि-संविभाग व्रत रखना चाहिए । पूर्वाचार्यों ने भी चातुर्मास के अभिग्रह इस प्रकार बतलाये चातुर्मास में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तथा वीर्याचार में द्रव्य आदि से अनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करने चाहिए। पुनरावर्तन, स्वाध्याय, उपदेशश्रवण तथा चिन्तन एवं शुक्ल पंचमी को ज्ञान की पूजा शक्तिअनुसार करनी चाहिए। ये ज्ञानाचार के नियम हैं। जिनमन्दिर में सम्मान (झाड़ निकालना), लीपना, गहुँली करना, जिनपूजा, वन्दन तथा जिनबिम्बों को निर्मल करना चाहिए। ये दर्शनाचार के नियम हैं। फसल या पेड़-पौधे पर जंतु
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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