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________________ श्राद्धविधि/२३० प्रकार कहकर लोग उसकी मजाक करते। लोगों के उपहास को देखकर गुरु (सुधर्मास्वामी) ने वहाँ से विहार की तैयारी की। अभयकुमार मंत्री को पता चलते ही उसने चौराहे पर तीन करोड़ स्वर्णमुद्राओं के ढेर कर लोगों को बुलाकर कहा---"जो कुए के जल, अग्नि और स्त्री के स्पर्श का जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करेगा वह इस ढेर को ग्रहण कर सकेगा।" लोगों ने सोचकर कहा- "तीन करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का त्याग शक्य है, किन्तु जल आदि तीनों का त्याग शक्य नहीं है।" तब अभयकुमार ने कहा-"अरे मूर्यो ! तो फिर इस द्रमक मुनि पर क्यों हँसते हो? जल आदि का त्याग किया होने से इन्होंने इन तीन करोड़ स्वर्णमुद्राओं का भी तो त्याग किया है।" प्रतिबोध पाकर लोगों ने अपने अपराध की क्षमायाचना की। अविद्यमान वस्तु के त्याग में उपर्युक्त दृष्टान्त है। अतः असम्भव वस्तु के त्याग का भी नियम लेना चाहिए। नियम न लें तो उन-उन वस्तुओं का उपयोग नहीं करने पर भी अविरत पशुओं की तरह उन नियमों के फल से वंचित रहते हैं । भत हरि ने भी कहा है-“सहन किया परन्तु क्षमा से नहीं, गृहस्थावास के सुख का त्याग किया परन्तु सन्तोष से नहीं, दुःसह शीत, वायु, धूप आदि के क्लेश सहन किये परन्तु तप नहीं किया, रात-दिन, प्राणों को नियन्त्रित करके धन का ध्यान किया परन्तु मुक्तिपद का नहीं अतः क्षमा, त्याग, ध्यान आदि जो मुनि करते हैं, वह सब किया, परन्तु उसके फल से वंचित रहे।" एक बार भोजन करने पर भी पच्चक्खाण लिये बिना 'एकाशना' आदि का लाभ नहीं मिलता है। लोक में भी किसी का धन लम्बे समय तक उपयोग में लेने पर भी पूर्वनिर्णय के बिना ब्याज की प्राप्ति नहीं होती है। अविद्यमान वस्तु का नियम ले लेने पर कदाचित् संयोगवश वह वस्तु प्राप्त हो जाय तो भी नियमबद्ध व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं करेगा और जिसके नियम नहीं है, वह ग्रहण भी कर सकता है, अतः नियमग्रहण का फल व्यक्त ही है। वंकचूल ने गुरुदेव के पास अज्ञात फल नहीं खाने का नियम लिया था। जंगल में भूख लगने पर साथियों के द्वारा बहुत आग्रह करने पर भी उसने अज्ञात नाम वाले किपाक फलों को नहीं खाया था, जबकि उसके साथियों ने खा लिया था, परिणामस्वरूप वे सब मृत्यु को प्राप्त हुए। मूल गाथा में प्रति चातुर्मास का निर्देश उपलक्षण रूप होने से भाव यह है कि पक्ष, एक मास, दो मास, तीन मास, एक-दो वर्ष अथवा अपनी शक्ति के अनुसार नियम लेने चाहिए। जो जितने काल के लिए नियमपालन में समर्थ हो उसे उतने काल का नियम ले लेना चाहिए। नियम बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहिए। क्योंकि विरति का महाफल होता है; जबकि अविरति से बहुत से कर्मों का बंध होता है। यहाँ जो नित्यनियम पहले बतलाये हैं, उन्हें वर्षाऋतु में विशेष रूप से ग्रहण करना चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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