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________________ श्राद्धविधि / २२२ मनुस्मृति में भी कहा है- "अमावस्या, अष्टमी, पूर्णिमा और चतुर्दशी में तथा अनुचित समय में स्नातक ब्राह्मण नित्य ब्रह्मचारी रहता है ।" अतः पर्व दिनों में सर्वशक्ति से धर्म में यत्न करना चाहिए । अवसर पर किया गया थोड़ा भी धर्मकृत्य भोजन-पानी आदि की तरह विशेष लाभदायी होता है । वैद्यकशास्त्र में भी कहा है- "शरद् ऋतु में पिये गये जल, पौष-माघ में खाये गये अन्न तथा ज्येष्ठ प्राषाढ़ में की गयी निद्रा से मनुष्य जीता है ।" "वर्षा ऋतु में नमक अमृत है, शरदऋतु में जल, हेमन्त ऋतु में दूध, शिशिर ऋतु में आँवले का रस, वसन्त ऋतु में घी तथा ग्रीष्म ऋतु में गुड़ अमृत है ।" पर्व की महिमा से धर्महीन भी धर्म में, निर्दय भी दया में, अविरतिधर भी विरति में, कृपण भी धनव्यय में, कुशील भी शील में तथा तपरहित व्यक्ति भी तप में प्रवृत्त होता है । सभी दर्शनों में यह बात वर्तमान में भी देखी जाती है। कहा है- " जिसके प्रभाव से निर्दय को भी धर्मबुद्धि होती है, ऐसे संवत्सरी और चउमासी महान् पर्वों का जिन्होंने विधान किया है, वे जय पायें ।" पर्वदिनों में पौषध आदि अवश्य करना चाहिए। चार प्रकार के पौषध का स्वरूप श्रर्थदीपिका में कहा होने से यहाँ नहीं कहा है । पौषध तीन प्रकार के हैं - ( 1 ) अहोरात्र (2) दैवसिक और (3) रात्रिक । 5 अहोरात्र पौषधविधि 5 श्रावक को जिस दिन पौषध लेना हो उस दिन गृह-व्यापार का त्याग कर और पौषध के योग्य उपकरण लेकर साधु के समीप अथवा पौषधशाला में जाना चाहिए। उसके बाद अपने देह की प्रतिलेखना कर मल-मूत्र की स्थंडिल भूमि की प्रतिलेखना कर गुरु- समीप में अथवा नवकारपूर्वक स्थापनाचार्य की स्थापना कर 'ईरियावहिय' करके खमासमरण देकर पौषध मुहपत्ती की पडिलेहना करनी चाहिए । फिर खमासमण देकर खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पोसहं संदिसावेमि ।' फिर दूसरा खमासमरण देकर 'पोसहं ठावेमि' कहकर नवकारपूर्वक पौषध उच्चरना चाहिए | ( गुरु के अभाव में स्वयं पौषध उच्चरना चाहिए। ) फिर मुहपत्ती - पडिलेहन कर दो खमासमरण देकर सामायिक उच्चरना चाहिए । फिर दो खमासमरण देकर यदि वर्षाऋतु हो तो काष्ठासन का और शेष आठ मास में 'पादोछन' का आदेश मांगकर दो खमासमरण देकर सज्झाय के आदेश मांगने चाहिए । फिर प्रतिक्रमण कर दो खमासमण देकर बहुवेल संदिवेसामि तथा 'बहुवेल करंशु' कहकर खमासमणपूर्वक पडिलेहन के प्रदेश मांगकर मुहपत्ती, पादोछन व धोती का पडिलेहन कर, ( श्राविका हो तो मुहपत्ती, पादोछन, चरिणया, कंचुक व साड़ी का पडिलेहन कर ) खमासमरण देकर 'इच्छकारी भगवन् पडिलेहरणा पडिलेहावो' का प्रदेश मांगकर 'इच्छं' कहकर स्थापनाचार्य का पडिलेहन कर, खमासमण पूर्वक 'उपधिमुहपत्ती' का पडिलेहन कर दो खमासमरण देकर 'उपधि संदिसाहु' एवं 'उपधि पडिलेहु' ये दो आदेश मांगकर उसे वस्त्र - कम्बल का पडिलेहन करना चाहिए । फिर पौषधशाला का प्रमार्जन कर काजा लेकर,
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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