SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि / ११० दूसरों से कोई काम कराना हो तो उन पुरुषों को पहले दृष्टान्त व अन्योक्ति द्वारा वह कार्य समझा देना चाहिए । जो वचन स्वयं बोलना है यदि वही वचन अन्य किसी ने भी कहा हो तो उसे अपने कार्य की सिद्धि के लिए स्वीकार कर लेना चाहिए। जो कार्य अशक्य हो उसे पहले ही कह • देना चाहिए, परन्तु किसी को निरर्थक धक्के नहीं खिलाने चाहिए । किसी को कटु वचन न सुनायें । यदि दुश्मन को भी कटु वचन कहना पड़े तो अन्योक्ति से अथवा किसी बहाने से कहें । माता, पिता, रोगी, आचार्य, अतिथि, भाई, तपस्वी, वृद्ध, बालक, दुर्बल, वैद्य, संतान, दामाद, नौकर, बहन, आश्रित सम्बन्धी व मित्र आदि के साथ कभी कलह न करने वाला तीन जगत् को जीतता है । निरन्तर सूर्य की ओर न देखें, सूर्य व चन्द्र के ग्रहण को न देखें। गहरे कुए में झाँककर न देखें और संध्या समय प्रकाश न देखें। किसी की मैथुन क्रिया, शिकार, युवा नग्न स्त्री, पशुओं की क्रीड़ा और कन्या की योनि को न देखें तेल, जल, हथियार, मूत्र व रक्त में अपने मुख का प्रतिबिम्ब न देखें, इससे आयुष्य क्षीरण होता है अंगीकार किये वचन को भंग न करें। गुम हो गयी वस्तु का शोक न करें। किसी की निद्रा का भंग न करें । । । बहुत लोगों के साथ वैर न कर बहुमत की बात स्वीकार कर लें । रुचि बिना के कार्य भी बहुतों के साथ मिलकर करें । बुद्धिमान पुरुष को सभी शुभ कार्यों में अग्रणी बनना चाहिए । कपट से दिखाई गई निस्पृहता फलदायी नहीं बनती है। किसी को नुकसान हो ऐसे कार्य में तत्पर न बनें । सुपात्र में कभी मत्सर भाव न रखें । न अपनी जाति पर ये कष्ट की उपेक्षा करें, परन्तु आदरपूर्वक जाति की एकता करें । "ऐसा न करने पर मान्य व्यक्ति का मानभंग होता है और अपना अपयश होता है । अपनी जाति को छोड़कर जो अन्य जाति में प्रासक्त होते हैं वे कुकर्दम राजा की तरह नष्ट होते हैं । परस्पर कलह करने से प्राय. जातियाँ नष्ट हो जाती हैं और परस्पर मेल रखने से जल में कमलिनी की भाँति वृद्धि होती है। दरिद्रता से ग्रस्त मित्र, साधर्मिक, ज्ञाति के अग्रणी, पुत्र रहित बहन का अवश्य पालन करना चाहिए । गौरवप्रिय व्यक्ति को सारथी का कार्य, परायी वस्तु का क्रय-विक्रय तथा कुल के अनुचित कार्य नहीं करने चाहिए । महाभारत आदि ग्रन्थों में भी कहा है - " ब्राह्म मुहूर्त में जगकर धर्म और अर्थ का चिन्तन करना चाहिए । उगते हुए और अस्त होते हुए सूर्य को कभी नहीं देखना चाहिए ।" दिन में उत्तर दिशा सम्मुख व रात्रि में दक्षिण दिशा . सम्मुख तथा शारीरिक पीड़ा हो तो किसी भी दिशा में लघुनीति व बड़ी नीति करनी चाहिए। आचमन कर देवपूजा एवं गुरु का अभिवादन करें और उसी प्रकार तत्पश्चात् भोजनक्रिया करें । हे राजन् ! बुद्धिमान पुरुष को धनार्जन के लिए अवश्य पुरुषार्थ करना चाहिए क्योंकि धन की प्राप्ति होने पर ही धर्म-काम आदि की सिद्धि हो सकती है । धन का जितना लाभ हो उसका चौथा भाग धर्मकार्य में खर्च करें, चौथे भाग का संग्रह करें। शेष धन से अपना भरण-पोषण और नित्य नैमित्तिक क्रियाएँ करें ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy