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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१८५ + अन्य धर्मियों के साथ औचित्य-पालन के "अन्यदर्शनी भिक्षक अपने घर भिक्षा के लिए आये तो उसे समुचित भिक्षा देनी चाहिए और राजमान्य अन्यदर्शनी भिक्षुक आये तो उसे विशेषकर समुचित भिक्षा देनी चाहिए।" यद्यपि अन्यदर्शनी के प्रति श्रावक के मन में भक्ति नहीं है और न ही उसके गुणों के प्रति पक्षपात (अनुमोदना) है, फिर भी घर पर आये हुए का योग्य सत्कार करना यह गृहस्थ का प्राचार है । - "घर आये व्यक्ति के साथ उचित आचरण करना, आपत्ति में गिरे हुए की आपत्ति दूर करना और दुःखी पर दया करना-यह सबका सम्यग् धर्म है।" घर आये पुरुष के साथ मधुरता से बात करें। उन्हें बैठने के लिए आसन दें। भोजन आदि के लिए आमंत्रण दें। आगमन का कारण पूछे और कारण जानकर कार्य करने के लिए उद्यमशील बनें। दीन, अनाथ, अंध, बधिर तथा रोगों से पीड़ित दुःखीजनों की अपनी शक्ति के अनुसार सहायता करें और उनके रोग आदि का प्रतिकार करें। श्रावक को इन लौकिक प्राचारों का भी अवश्य पालन करना चाहिए क्योंकि जो इस लौकिक औचित्य-पालन के कार्य में भी निपुण नहीं होता है, वह लोकोत्तर और सूक्ष्मबुद्धि से ग्राह्य जैनधर्म में कैसे प्रवीण हो सकेगा? अतः धर्म के अर्थी व्यक्ति को औचित्य-पालन में अवश्य निपुण बनना चाहिए। अन्यत्र भी कहा है-"सर्वत्र उचित आचरण, गुणानुराग, जिनवचन में रति (राग) और दोष के विषय में मध्यस्थता ये सम्यग्दृष्टि के चिह्न हैं।" "समुद्र कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है, पर्वत कभी चलित नहीं होते हैं, इसी प्रकार उत्तम पुरुष कभी उचित आचरण की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं।" इसी कारण जगद्गुरु तीर्थंकर भी जब गृहस्थ अवस्था में रहते हैं तब माता-पिता के योग्य अभ्युत्थान आदि अवश्य करते हैं। इस प्रकार नौ प्रकार के उचित आचरण का कथन समाप्त हुआ। अवसरोचित वचन से बहुत लाभ होता है। समयोचित वचन पर दृष्टान्त ॥ प्रांबड़ मंत्री ने मल्लिकार्जुन को जीत कर चौदह करोड़ धन, मोती के छह मूठे, चौदह भार प्रमाण वाले धन के बत्तीस कुम्भ, शृगार हेतु रत्नजड़ित करोड़ वस्त्र, माणक का पट तथा विषापहार छीप आदि वस्तुओं को प्राप्त कर कुमारपाल महाराजा के खजाने की अभिवृद्धि की। कुमारपाल ने खुश होकर उसे राजपितामह का विरुद दिया और एक करोड़ द्रव्य तथा चौबीस जातिमान अश्व प्रदान किये परन्तु अपने घर पहुँचने तक तो उस प्रबड़ ने अपनी वह सारी सम्पत्ति याचकों को दान में दे दी। ___ किसी ने राजा के कान फूके । राजा ने उसे बुलाया और गुस्से में आकर कहा-"अरे, मुझ से भी अधिक दान देते हो?" उसी समय प्रांबड़ ने कहा-"आपके पिता तो बारह गाँव के ही स्वामी थे, जबकि मेरे
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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