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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १६५ उस सामग्री के फलस्वरूप धन सार्थवाह और शालिभद्र की तरह अल्प भवों में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । (2) न्याय से उपार्जित धन का जैसे-तैसे (कु) पात्र में दान के संयोग से दूसरा भंग होता है । यह पापानुबन्धी पुण्य का कारण होने से किसी भव में भौतिक भोग-सामग्री के लाभ का कारण होने पर भी अन्त में तो इसका परिणाम अत्यन्त नीरस ही होता है । उदाहरण - एक ब्राह्मण ने एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराया । उसके परिणामस्वरूप अनेक भवों में भोगकुछ सुखों को प्राप्त कर सर्वांग सुन्दर लक्षणों वाला सेचनक नाम का भद्रहस्ती बना । उसी समय एक गरीब ब्राह्मण भी था, उसने लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद बचा प्रश्न इकट्ठा किया और वह अन्न उसने सुपात्र में दान दिया । सुपात्रदान के फलस्वरूप वह ब्राह्मण मर कर सौधर्म देवलोक में देव बना और उस देवायु को पूर्ण कर 500 राजकन्याओं के साथ लग्न करने वाला श्रेणिकपुत्र नन्दिषेरण बना । उस नन्दिषेरण को देखकर सेचनक हाथी को जातिस्मररणज्ञान उत्पन्न हुआ, किन्तु वह मरकर पहली नरक में पैदा हुआ । (3) अन्याय से उपार्जित धन का सुपात्र में दान देने से तीसरा भंग होता है । अच्छे क्षेत्र बोया गया सामान्य बीज भी फलदायी बनता है, उसी प्रकार भविष्य में सुखोत्पत्ति के अनुबन्ध वाला होने से अधिक आरम्भ से उपार्जित द्रव्य वाले राजा और व्यापारी आदि के लिए यह भंग अनुज्ञात है । कहा है – “काश नाम के घास के समान साररहित और विरस लक्ष्मी को भी सात क्षेत्रों में उपयोग कर धन्य पुरुषों ने उसे इक्षु के समान बना दी है ।" तुच्छ घास भी गाय के पेट में जाकर दूध बन जाती है और वह दूध भी साँप के मुख में जाने से विष बन जाता है । पात्र और अपात्र के भेद से वस्तु का भिन्न-भिन्न परिणाम प्राता है, अतः पात्र में दान करना ही श्रेष्ठ है । स्वाति नक्षत्र का जल साँप के मुँह में गिरने से विष और सीप के मुँह में गिरने से मोती बनता है । पात्र के भेद से ही वस्तु परिणमन में यह अन्तर पड़ता है । निर्माण करने वाले विमलमंत्री आदि का संचित द्रव्य का सुक्षेत्र में वपन न करे तो इस सन्दर्भ में आबूपर्वत पर जिनमन्दिरों का दृष्टान्त प्रसिद्ध ही है । महारम्भादि अनुचितवृत्ति से मम्मरणसेठ आदि की तरह वह दुष्कीर्ति और दुर्गति को देने वाला तो है ही । इस लोक में उत्तम (4) अन्याय-अजित धन का कुपात्र में पोषण रूप चौथा भंग है । पुरुषों द्वारा निंद्य होने से और परलोक में दुर्गति का कारण होने से विवेकी पुरुषों के लिए त्याज्य ही है। कहा है- " अन्याय से उपार्जित धन का दान अत्यन्त दोष रूप है, वह तो गाय को मारकर कौनों को तृप्त 'करने के समान है ।" " अन्याय से उपार्जित धन से जो श्राद्ध किया जाता है, उससे चाण्डाल, बुक्कस और दासजन तृप्त होते हैं ।" "न्याय से युक्त धन का थोड़ा भी दान कल्याण के लिए होता है और अन्याय से उपार्जित अधिक धन का अधिक दान भी किया जाय तो उसका कोई फल नहीं होता है ।" " अन्याय से
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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