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________________ श्राद्धविधि/१६४ इसी विषय पर लोक में भी यह दृष्टान्त प्रसिद्ध है___ चम्पानगरी में सोम नाम का राजा था। एक बार उसने किसी अच्छे पर्व के दिन दान देने के लिए शुभद्रव्य और दान को ग्रहण करने के लिए योग्य पात्र के बारे में मंत्री को पूछा। मंत्री ने कहा-“यहाँ पात्र तो एक ब्राह्मण है, परन्तु शुभद्रव्य की प्राप्ति विशेषकर राजा को दुर्लभ है।" कहा भी है विशुद्ध धन वाले दाता और गुणयुक्त पात्र का योग सुन्दर बीज और योग्य क्षेत्र की भाँति अत्यन्त ही दुर्लभ है। उसके बाद राजा ने पर्वदिन पर पात्र में दान देने के लिए वेष बदल कर आठ दिन तक किसी व्यापारी की दूकान पर जाकर एक सामान्य व्यापारी के योग्य कार्य करके आठ द्रम्म कमाये । एक पर्वदिन पर सभी ब्राह्मणों को बुलाने के बाद उस पात्र ब्राह्मण को बुलाने के लिए राजा ने अपने मंत्री को भेजा। मंत्री उसके घर गया। उसने कहा, "जो ब्राह्मण लोभ से मोहित होकर राजा के पास दान लेता है, वह मरकर तमिस्रा आदि घोर नरक में जाता है।" "राजा का दान तो मधु से मिश्रित विष के समान है। आपत्ति में पुत्र का मांस खा लेना श्रेष्ठ है, किन्तु राजा का दान लेना उचित नहीं है।" "दस कसाइयों के समान एक कुम्भकार है, दस कुम्भकारों के समान एक कलाल है। दस कलालों के समान एक वेश्या है और दस वेश्यानों के समान एक राजा है" इस प्रकार पुराण-स्मृति आदि के वचनों से, दुष्ट होने के कारण मैं राजा का दान ग्रहण नही करता हूँ। प्रधान ने कहा-"यह राजा अपनी भुजा से अर्जित न्याययुक्त धन ही देगा, अतः उसे ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है ।"... इस प्रकार युक्ति से समझा कर वह उस ब्राह्मण को राजा के पास ले पाया। राजा ने खुश होकर उसे बैठने के लिए अच्छा आसन दिया। उसके पैर आदि धोकर अत्यन्त विनयपूर्वक उसकी हथेली में वे आठ द्रम्म रख दिये। "इस ब्राह्मण को कुछ कीमती वस्तु प्रदान की है।" इस प्रकार रुष्ट बने अन्य ब्राह्मणों को भी राजा ने स्वर्ण आदि देकर खुश कर दिया। कुछ समय बाद सभी ब्राह्मण अपने-अपने घर चले गये। छह महीने में ही उन सब ब्राह्मणों का सब धन नष्ट हो गया, परन्तु पात्र ब्राह्मण को दिये गये वे पाठ द्रम्म भोजन-वस्त्र आदि अनेक कार्यों में उपयोग में लेने पर भी न्यायाजित से नष्ट नहीं हुए और दीर्घकाल तक अक्षय निधि और सुन्दर बीज की तरह लक्ष्मी की वृद्धि करने वाले सिद्ध हुए। इस प्रकार न्यायाजित धन के विषय में सोम राजा का प्रबन्ध है। न्यायाजित वित्त और सत्पात्र में विनियोग की चतुर्भगी होती है (1) न्याय से प्राप्त धन और सुपात्रदान के योग से प्रथम भंग होता है। यह पुण्यानुबन्धी पुण्य का कारण होने से इससे श्रेष्ठ देवत्व, युगलिक जीवन तथा सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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