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________________ श्राद्धविधि / १२४ पदार्थों को बहोरने हेतु उनके नाम कहे । यदि ऐसा न करे तो पहले की हुई निमन्त्रणा निष्फल जाती है और नाम कहने पर भी साधु नहीं बहोरे तो भी श्रावक को पूरा लाभ मिलता ही है । कहा भी है " मन से भी पुण्य होता है, वचन से ( निमंत्रण करने से ) अधिक पुण्य होता है और काया से सामग्री प्रदान करने से वह (दान) कल्पवृक्ष की तरह फलदायी बनता है ।" मुँह से यदि नहीं कहा जाय तो कोई वस्तु दिखाई देने पर भी साधु भगवन्त नहीं बहोरते हैं, इससे बहुत बड़ा नुकसान होता है। इस प्रकार निमन्त्रण देने पर कदाचित् गुरु भगवन्त नहीं पधारें तो भी निमन्त्रण देने वाले को तो पुण्य होता है और भावों की अधिकता हो तो विशेष पुण्य होता है । * निमन्त्रण पर जीणं श्रेष्ठी का दृष्टान्त विशाला नगरी में जीर्ण नाम का एक श्रेष्ठी छद्मस्थ अवस्था में चार मास के उपवास करके प्रतिमा में रहे वीर प्रभु को पारणे के लिए पधारने हेतु प्रतिदिन श्रामन्त्रण देता था । चार माह के अन्त में, 'आज तो पारणा होगा ही' इस प्रकार मानकर जीर्ण श्रेष्ठी प्रभु को आमन्त्रण देकर अपने घर आया और भावना करने लगा कि अहो ! मुझे धन्य है, प्राज प्रभु मेरे घर पधारेंगे और पारणा करेंगे। इस प्रकार की भावना से उसने अच्युत देवलोक के प्रायुष्य का बंध किया । परन्तु पारणा तो प्रभु ने मिथ्यादृष्टि अभिनव श्रेष्ठी के घर भिक्षाचर की रीति से दासी द्वारा विलाए गये उड़द के बाकुले से किया । उसी समय पंच दिव्य प्रगट हुए। यदि उस समय जी श्रेष्ठीने देवदुन्दुभि की आवाज नहीं सुनी होती तो उसे उसी समय केवलज्ञान हो जाता, ऐसा ज्ञानियों का वचन है । यह गुरु- निमन्त्रण पर जीर्णं श्रेष्ठी का दृष्टान्त है । . आहार आदि बहोराने के विषय में शालिभद्र आदि का प्रोर ( औषध के दान में) भगवान महावीर प्रभु को औषधदान के विषय में जिन नाम कर्म का बंध करने वाली रेवती श्राविका का दृष्टान्त समझना चाहिए । ग्लान सेवा 5 ग्लान साधु की सेवा (वैयावच्च) करने में महान् लाभ है । श्रागम में कहा है "जो ग्लान की सेवा करता है, वही सच्चा सम्यग्रडष्टि है और जो सच्चा सम्यग्डष्टि है वह ग्लान की सेवा करता ही है ।" अरिहन्त की आज्ञा का पालन यही सम्यग्दर्शन है । वैयावच्च के विषय में कृमि और कोढ़ के रोग से पीड़ित साधु की व्यावच्च करने वाले श्री ऋषभदेव प्रभु के जीव जीवानन्द वैद्य का दृष्टान्त समझना चाहिए ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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