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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ११९ श्री केशी गणधर ने कहा- "तुम्हारी माता स्वर्गसुख में निमग्न होने के कारण नहीं श्राई और तुम्हारे पिता नरक की वेदना से आकुल होने के कारण यहाँ नहीं आये । "अरणि-काष्ठ में अग्नि होने पर भी उसके चाहे जितने टुकड़े कर दो तो भी उसमें अग्नि दिखाई नहीं देती है । उसी प्रकार शरीर के कितने ही टुकड़े कर दो तो भी जीव दिखाई नहीं देता है । "लुहार की धमरण को खाली अथवा भरी तौलें तो भी उसमें कोई फर्क दिखाई नहीं देगा, उसी प्रकार जीवित और मृत शरीर के वजन में भी कोई फर्क नहीं पड़ता है । "बन्द कोठी में रहा व्यक्ति अन्दर रहकर शंख बजाये तो वह शब्द बाहर भी सुनाई देता है । जैसे - बन्द कोठी में से शब्द कैसे बाहर निकला, यह जान नहीं सकते हैं, उसी प्रकार कुम्भी में रहा मनुष्य का जीव कैसे बाहर निकला और कीड़ों ने कैसे प्रवेश किया, यह भी जान नहीं सकते हैं ।" इस प्रकार अनेक युक्तियों से केशी गणधर ने जीव की सिद्धि आदि द्वारा प्रदेशी राजा को प्रतिबोध दिया तब राजा ने कहा- "आपकी बात सत्य है किन्तु कुल परम्परा से प्राप्त नास्तिकता को कैसे छोड़ ?" गुरु ने कहा- - " जैसे व्यक्ति कुल - परम्परा से प्राप्त दरिद्रता, रोग और दुःख का त्याग करता है, उसी प्रकार नास्तिकता का भी त्याग कर देना चाहिए ।" आखिर गुरु के उपदेश से प्रदेशी राजा ने प्रतिबोध पाया और उसने श्रावकधर्म अंगीकार कर लिया । उस राजा के सूर्यकान्ता नाम की रानी थी। वह रानी पर पुरुष में श्रासक्त हो गयी । अतः एक दिन उसने पौषध के पारणे में प्रदेशी राजा को जहर खिला दिया । प्रदेशी राजा को इस बात का पता चला । उसने चित्र मन्त्री से बात कही । चित्र मंत्री के वचन से उसने अपने मन को समाधि में रखा और आराधना व अनशन कर सौधर्म देवलोक में सूर्याभ देव बना । इधर भयभीत बनी हुई सूर्यकान्ता जंगल में भाग गयी और सर्पदंश से मरकर नरक में नारकी हुई । एक बार श्रामलकल्पा नगरी में वीर प्रभु का समवसरण रचा गया। उस समय सूर्याभदेव ने दायें हाथ में से एक सौ श्राठ कुमार और बायें हाथ में से एक सौ आठ कुमारिकाश्रों की रचना कर अत्यन्त भक्ति से प्रभु समक्ष आश्चर्यकारी दिव्य नाटक किया और फिर स्वर्गलोक में चला गया । उसके बाद गौतम स्वामी के पूछने पर प्रभु ने उसका पूर्व भव और भविष्य में महाविदेह में से सिद्धिपद प्राप्ति की सब बातें कहीं । भट्ट सूरि महाराजा ने ग्राम राजा को प्रतिबोध दिया। हेमचन्द्राचार्य जी ने कुमारपाल महाराजा को प्रतिबोध दिया। यह सब प्रसिद्ध ही है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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