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________________ श्रावविषि/११० देवद्रव्य तथा ज्ञानद्रव्य सम्बन्धी मकान, पाट आदि वस्तुएँ भाड़ा देकर भी श्रावक को अपने उपयोग में नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि निध्वंस परिणाम की सम्भावना बनी रहती है। मकान आदि वस्तु साधारण खाते सम्बन्धी हों तो संघ की अनुमति से लोक-व्यवहार की रीति से उचित भाड़ा देकर उनका उपयोग कर सकते हैं। वह भाड़े की रकम भी समय-मर्यादा के भीतर शीघ्र चुका देनी चाहिए। अपने उपयोग के बीच यदि मकान की दीवार प्रादि टूट जाय और उसकी मरम्मत करनी पड़े तो उस भाड़े में से मरम्मत की रकम घटा सकते हैं क्योंकि ऐसा लोक-व्यवहार देखा जाता है। परन्तु अपने स्वयं के लिए मकान के ऊपर नयी मंजिल खड़ी की जाय तो उसका खर्च भाड़े में से घटा नहीं सकते हैं। क्योंकि ऐसा करने से साधारणद्रव्य के भक्षण का दोष लगता है। कोई सार्मिक अत्यन्त दुःखी हो तो संघ की अनुमति से बिना भाड़ा दिये भी साधारण-खाते के मकान में रह सकता है । अन्य स्थान न मिलने पर तीर्थ में तथा जिनमन्दिर में अधिक देर तक ठहरना पड़े तथा निद्रा आदि लेनी पड़े तो जितनी सुविधा प्राप्त की हो उससे कुछ अधिक भाड़ा देना चाहिए। अल्प भाड़ा दे तो दोष ही है। इसी प्रकार देव, ज्ञान और साधारण द्रव्य सम्बन्धी वस्त्र, नारियल, सोने-चांदी के पाटे, कलश, फूल, पक्वान्न, सुखड़ी आदि वस्तु उद्यापन, नंदी तथा पुस्तक, पूजा आदि में पूरा भाड़ा (नकरा) दिये बिना नहीं रखनी चाहिए। उद्यापन प्रादि कृत्यों में अपने नाम से बड़ा आडम्बर किया जाता है। इससे लोक में अधिक प्रशंसा होती है। अतः अगर वह अल्प भाड़ा देकर वस्तुएँ उद्यापन आदि में रखे तो स्पष्ट रूप से दोष लगता है। * लक्ष्मीवती का दृष्टान्त * किसी नगर में लक्ष्मीवती नाम की अत्यन्त समृद्धिमान और धर्मिष्ठ श्राविका थी। उसमें अत्यन्त महत्त्वाकांक्षा थी। __वह हमेशा थोड़ा भाड़ा (नकरा) देकर बड़े आडम्बर के साथ विविध प्रकार के उद्यापन आदि धर्मकृत्य करती और कराती थी। मन में यह समझती थी कि मैं देवद्रव्य की वृद्धि और प्रभावना करती हूँ। इस प्रकार श्रावकधर्म का पालन कर वह प्रज्ञापराध के कारण मरकर नीच देवी के रूप में देवलोक में पैदा हुई। स्वर्ग में से च्यवकर किसी धनवान और पुत्ररहित श्रेष्ठी के घर मान्य पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई। वह गर्भ में थी। तब अचानक दुश्मन राजा का भय आ जाने से उसकी माता का सीमंत महोत्सव नहीं हो पाया। यह महोत्सव गर्भाधान के चौथे, छठे या आठवें महीने में स्त्रियाँ मनाती हैं। उसके पिता ने उसके जन्म के बाद उसके जन्मोत्सव, छठी उत्सव, नामकरण महोत्सव,
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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