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________________ श्राद्धविधि / १०८ चावल, फल, नैवेद्य, दीप, तैल-भण्डार, पूजा की सामग्री, पूजा की रचना, देवद्रव्य की उगाही, उसका हिसाब-किताब रखना, यतनापूर्वक देवद्रव्य रखना, उसके जमा-खर्च का विचार करना इत्यादि प्रत्येक कार्य के लिए संघ की ओर से चार-चार व्यक्ति नियुक्त किये गये । वे सब लोग अपना-अपना कार्य बराबर करते । एक बार मुख्य कार्यकर्त्ता उगाही करने के लिए किसी के घर गया । रकम मिलना तो दूर रहा, बदले में उसे दो-चार शब्द ही सुनने पड़े, इससे उसका मन एकदम खट्टा हो गया । फलस्वरूप वह अपने कार्य में आलस करने लगा । लोक-व्यवहार में मुख्य व्यक्ति का अनुसरण होता है। इस कारण अन्य व्यक्ति भी अपनेअपने कार्य में एकदम शिथिल हो गये । उसी समय देशभंग आदि हो जाने से देवद्रव्य 'बहुत-सा नष्ट हो गया । इस दुष्कर्म के कारण उसे असंख्य भवों तक संसार में भटकना पड़ा । देवद्रव्य की जो भी रकम देनी हो वह सच्ची ( नकली नहीं बल्कि असली ) रकम देनी चाहिए । घिसे हुए अथवा नकली सिक्के (रुपये) नहीं देने चाहिए क्योंकि इस प्रकार की प्रवृत्ति से देवद्रव्य आदि के उपभोग का दोष लगता है । देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य तथा साधारणद्रव्य सम्बन्धी घर, दुकान, खेत, बाड़ी, पाषाण, ईंट, काष्ठ, बाँस, खपरैल, मिट्टी, खड़ी आदि, चन्दन, केसर, कपूर, फूल आदि पिङ्गानिका, टोकरी, धूपदानी, कलश, वासक्षेप की डिब्बी आदि, छत्र संहित सिंहासन, चामर, चंदोवा, झल्लरी, भेरी आदि वाद्य यन्त्र, साबाण, सरावले, पर्दा, कम्बल, चटाई, कपाट, पाट, पाटला, कुंडी, घड़ा, चन्दन घिसने का पत्थर, काजल, जल, प्रदीप श्रादि तथा मन्दिर के विभाग की नाल में से पड़ता हुआ जल स्वयं के उपभोग में नहीं लेना चाहिए। क्योंकि देवद्रव्य की तरह उसके उपभोग से भी दोष लगता है । चामर, साबाण आदि वस्तु के उपभोग से वह मलिन हो जाए और टूट-फूट जाए तो अधिक दोष भी लगता है । मन्दिर की कोई भी वस्तु काम में नहीं आती है, इसके लिए कहा भी है- प्रभु समक्ष दीपक करके उससे गृहकार्य नहीं करने चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से श्रात्मा तियंच गति में जाती है । * देवद्रव्य से गृहकार्य नहीं करना चाहिए, इस पर सांडनी का उदाहरण * इन्द्रपुर नगर में देवसेन नाम का एक व्यापारी था। उसके धनसेन नाम का सेवक था, जो ऊँट की सवारी करता था । धनसेन के घर से प्रतिदिन एक सांडनी देवसेन के घर आती थी । धनसेन उसे मारपीट कर अपने घर ले जाता फिर भी स्नेहवश वह पुनः देवसेन के घर आ जाती । सडनी की इस प्रवृत्ति को देख देवसेन ने वह खरीद ली । दोनों को एक-दूसरे पर स्नेह था। एक बार किसी ज्ञानी गुरु भगवन्त को सांडनी के स्नेह के बारे में पूछने पर गुरु भगवन्त ने कहा "यह सांडनी पूर्वभव में तुम्हारी माता थी । इसने प्रभु के समक्ष दीपक करके उसी दीपक से इसने गृहकार्य किया था । धूपदानी के अंगारे से चूल्हा सुलगाया था । उस पापकर्म के कारण ही यह मरकर सांडनी बनी है । कहा भी है
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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