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________________ दूसरा अध्याय सन्धि विचार प्राकृत भाषा का व्याकरण प्राकृत में ही लिखा हुआ उपलब्ध नहीं होता है । जितने भी प्राकृत वैयाकरण हैं, उन्होंने संस्कृत शब्दों में विकार के नियमों का निरूपण कर प्राकृत शब्दों की निष्पत्ति दिखलायी है। अतः यहां सन्धि के उन्हीं नियमों का विवेचन किया जायगा, जिनका प्रयोग प्राकृत साहित्य में पाया जाता है। सन्धि-जब किसी शब्द में दो वर्ण निकट आने पर मिल जाते हैं, तो उनके मेल से उत्पन्न होनेवाले विकार को सन्धि कहते हैं । संयोग और सन्धि में इतना भेद है कि जहां वर्ण अपने स्वरूप से बिना किसी विकार के मिलते हैं, उसे संयोग और जहाँ विकृत होकर उनके स्थान में कोई आदेश होने से मिलते हैं, उसे सन्धि कहते हैं। समास और सन्धि में यह अन्तर है कि समास में प्रायः दो या अधिक पद विभक्तियों का त्याग कर मिलते हैं, पर सन्धि में विभक्तियों सहित पदों का संयोग होता है । संक्षेप में वर्णविकार सन्धि है और शब्दविकार समास । प्राकृत में सन्धि को व्यवस्था विकल्प से होती है, नित्य नहीं। सन्धि के तीन भेद हैं-स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि और अव्यय सन्धि । स्वर सन्धि-दो अत्यन्त निकट स्वरों के मिलने से जो ध्वनि में विकार उत्पन्न होता है, उसे स्वर सन्धि कहते हैं। जैसे–मगह + अहिवई = मगहाहिवई (मगधाधिपतिः)। व्यञ्जन सन्धि-व्यंजन वर्ण के साथ व्यंजन या स्वर वर्ण के मिलने से जो विकार होता है, उसे व्यंजन सन्धि कहते हैं; जैसे- उसभम् + अजियं = उसभमजियं (ऋषभम् । जितम्)। प्राकृत में विसर्ग सन्धि का कोई स्थान नहीं है; क्योंकि विसर्ग के स्थान पर ओ या ए हो जाता है। अव्यय सन्धि-संस्कृत में इस नाम की कोई सन्धि नहीं है, पर प्राकृत में अनेक अव्यय पदों में यह सन्धि पायी जाती है । यह सन्धि दो अव्यय पदों में होती है। यथा-कि + अपि कि पि। इसमें सन्देह नहीं कि प्राकृत में अव्यय और निपात का महत्वपूर्ण स्थान है । यही कारण है कि इस सन्धि को अलग मानना पड़ता है।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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