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________________ नवाँ अध्याय क्रियाविचार प्राकृत में क्रिया शब्दों के मूल रूप को धातु कहते हैं। धातुओं में विविध प्रत्यय जोड़ने पर क्रिया के रूप बनते हैं। प्राकृत में क्रियारूपों के विकास पर सारश्य का प्रभाव संज्ञा आदि रूपों की अपेक्षा और भी अधिक व्यापक रूप में मिलता है। द्विवचन का लोप, कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य के रूपों का प्रायः एकीकरण, आत्मनेपद के रूपों का हास, विविध काल रूपों में अनुरूपता, क्रिया के विभिन्न रूपों में ध्वनिपरिवर्तन के कारण समानता आदि प्राकृत के क्रियाविकास की कुछ मुख्य विशेषताएँ हैं। संस्कृत धातुएँ भ्वादि, अदादि, जुहोत्यादि, स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि, क्रयादि और चुरादि इन दश गणों में विभक्त हैं। इन गणों के अनुसार ही विभक्तियों के जुड़ने के पूर्व धातु में परिवर्तन होता है । परन्तु इन सबमें भ्वादि रूपों की ही व्यापकता प्राकृत के क्रियापदों के विकास में मिलती है। कालरचना की दृष्टि से वर्तमान, भूत, आज्ञा, विधि, भविष्य और क्रियातिपत्ति के प्रयोग प्राकृत में दिखलायी पड़ते हैं । सहायक क्रिया के साथ कृदन्त रूपों का व्यवहार बहुलता से उपलब्ध होता है । अतएव यह कहा जा सकता है कि सादृश्य और ध्वनिविकास के कारण क्रिया के रूप अधिक सरल हो गये हैं । संस्कृत के समान क्रियारूपों में पेचीदगी नहीं है। क्रियारूपों की जानकारी के सम्बन्ध में निम्न नियम स्मरणीय हैं (१) प्राकृत में तिप आदि प्रत्ययों को तिङ कहते हैं। अकारान्त धातुओं को छोड़कर शेष धातुओं में आत्मनेपदी और परस्मैपदी का भेद नहीं माना जाता। हां, अदन्त या अकारान्त धातुएँ उभयपदी होती हैं। ( २ ) अकारान्त आत्मनेपदी धातुओं के प्रथम और मध्यम पुरुष एकवचन के स्थान में क्रमश: ए और से आदेश विकल्प से होते हैं। यथा—तुवरएर त्वरते; तुवरसे < त्वरसे। (३ ) अदन्त धातुओं से 'मि के पर में रहने पर पूर्व के 'अ' का आत्व विकल्प से होता है । यथा-- हसामि, हसमि इत्यादि। (४) अकारान्त धातुओं से मो, मु और म पर में रहे तो पूर्व के अकार के स्थान में इ और आ होते हैं। कहीं-कहीं ए भी हो जाता है। यथा-हसिमो, हसामो, हसेमो; हसिमु, हसेमु इत्यादि।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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