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________________ [ २ ] शान्तमूर्ति मुनिमहाराज श्री शान्तीविजयजीको सम्वत् १९६१ के माघ शुक्का ५ को जैन दिक्षा हुई । दिक्षा पाते ही कुछ अर्से बाद विहार करते हुए मालवा प्रांत में पधारे जहांसे सम्वत् १९७६ में फिर इस प्रान्त में पधारे और जबसे आप अपनी जन्मभूमिमें ही संसारके सब प्रपंचोंसे विरक्त रहकर पवित्रता और त्यागकी साक्षात मूर्ति समान, सरल और निराडंबरी जीवनको बिताते हुए विचरते हैं आप अपने देशके कल्याण और उद्धारके उपाय सोचने और जैन समाजमें शान्ती फैलाने में हरदम रत रहते हैं । आप पूरे 'यथा नाम तथा गुणा' ही है । श्रीयुत जीवनचंद धर्मचंद 'परम कल्याण मंत्र ॐ के पुस्तकमें लिखते हैं:1 ' सत्पुरुषोंका समागम यह वास्तविक जीवन सागरका प्रकाशस्थम्भ है । ऐसे संत समागमकी शोध में आज तक जीवन में तीन साधु मुनीराजोंका मुझे विशेष परिचय हुआ । प्रथम मुनि माहराज श्री मोहनलालजी माहराज, सं० १९६० से योगनिष्ट आचार्य श्री बुद्धिसागर सुरीजी माहराज और सं० १९७९ परम योगी श्री शान्ती विजयजी माहराजका उत्तरोत्तर लाभ मिला । श्री मोहनलालजी माहराजने श्री बुद्धिसागरजी माहाराजके लिए सुंदर अभिप्राय दिया था । आज संसार में प्रथम दोनों व्यक्ति नहीं है वे कालधर्मको प्राप्त होगए हैं और जीवनके एक चमकते प्रकाश स्थम्भकी भांति आबुके एकान्तमें सतत् आत्मचिंतन करनेवाले मुनीराज श्री शान्तीविजयजी आज एक पूजनीय व्यक्ति तरीके मेरे हृदय में स्थान लेकर बेठे हैं । संसारके सर्व प्रपंचोंसे दूर रहकर पवित्रताकी साक्षात् मूर्ति समान श्री शांतिविजयजीका निस्टही, सरल और निराडंबरी जीवन, निरागी और सात्विक आत्माकी सुवास, अडोल शांति और निर्दोष आनन्द पर जमाई हुई सत्ता समागममें आनेवालोंका सोये हुए आत्माको मौन भाषा में मधुर कंठसे जागृत करनेकी कला, आंखके इशारे पर सामनेवाले के हृदयपर शांतिका सिंचन करनेकी सिद्धि और एक चतुर किमियागरकी भांति आकृति सुन्दर सौम्य कोमल भावसे, अपने जीवनको और जीवनके प्रत्येक श्वासको अपनी अद्भूत जीवन कलासे सौरभयुक्त बनानेका तेजस्वी जाने वास्तव में अपने को उनके चरणों में मस्तक नमन करनेको बाध्य करता है । बालकके अनुसार निर्दोष जीवन प्रत्येक साधुका होना चाहिए श्री शांतिविजयजी महाराज इस दृष्टिसे महान साधु हैं । एकांतके आवास में, पहाड़ोंके प्रभुत्वयुक्त वायुकी मिठाश और भरचक ताजगीके अन्तर समता और समानत्व भावसे संसारकी प्रत्येक उपाधी से निवृत्त होकर वास्तविक ढंगसे निवृत होकर अष्ट प्रहर आत्मा और परमात्मा के योग साधन में तल्लीन रहते हैं । वही साधु योगी श्री शांतिविजयजीका स्थान योगीकी दृष्टिसे ऊँचा हैं । •
SR No.032025
Book TitleShantivijay Jivan Charitra Omkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAchalmal Sohanmal Modi
PublisherAchalmal Sohanmal Modi
Publication Year
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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