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________________ ( २) है कि जहां व्याप्य होता है वहां व्यापक अवश्य होता है परन्तु जहां व्यापक होता है, वहां व्याप्य होता भी है और नहीं भी होता है। सो यहां पर कार्य कारण भाव व्याप्य है और अन्वयव्यतिरेक भाव उगपक है। प्रातः जहाँ कार्यकारणभाव होगा वहां अन्वयम्पतिरेक भाव अवश्य होगा; परन्तु जहां अन्वयव्यतिरेकभाव है, वहां कार्यकारणभाव होय मी और नहीं भी होय।कार्यके सद्भाव में कारण के सद्भाधको अन्धय कहते हैं । जैसे जहां २ धम होता है, वहां २ अग्नि अवश्य होती है। और कारण के प्रभाव कार्यके प्रभाव को व्यति. रेक कहते हैं, जैसे जहां २ अग्नि नहीं है वहाँ २ धूम भी नहीं है । सो जो ईश्वर और लोक में कार्यकारणसंबंध है तो उनमें अन्वयव्यतिरेक अवश्यहोना चाहिये । परन्तु ईश्वर का लोक के साथ व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता। व्यतिरेक दो प्रकार का है एक कालव्यतिरेक दूसरा क्षेत्रव्यतिरेक । ईश्वरमें दोनों प्रकार के व्यतिरेकों में से एक भी सिद्ध नहीं होता क्षेत्रव्यतिरेक जन सिद्ध हो सक्ता है जब यह वाक्य सिद्ध हो जाय कि जहां २ ईश्वर नहीं है वहां २ लोक भी नहीं हैं परन्तु यह वाक्य सिद्ध नहीं हो सक्ता है क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी कहा जाता है अतः ऐमा कोई क्षेत्र नहीं है कि जहां ईश्वर नहीं होय; इस लिये क्षेत्रब्यतिरेक सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार कालव्यतिरेक भी ईश्वर में सिद्ध नहीं होता; क्योंकि कालव्यतिरेक जब सिद्ध हो जब यह वाक्य सिद्ध होजाय कि जन जब ईश्वर नहीं है तब २ लोक भी नहीं है परन्तु यह वाक्य सिद्ध नहीं हो सक्ता क्योंकि ईश्वर नित्य कहा जाता है अतः कोई काल ही ऐसा नहीं है कि जिस समय ईश्वर नहीं होय; इसलिये ईश्वर में कालव्यतिरेक भी सिद्ध नहीं होसक्ता । और जब व्यतिरेक सिद्ध नहीं हुआ तो कार्यकारणभाव ईश्वर और लोकमें सिद्ध नहीं हो सक्ता और जब कार्यकारणभाव ही नहीं तो ईश्वर इस लोकका कर्ता है ऐसा किस प्रकार सिद्धहो सकता है ?॥ स्वामीजी-परमात्मा का स्वभाव मैंने श्रुतिके आधार पर क्रिया बतलाया है न कि सृष्टि रचना * ईश्वर की शक्तिसे दी हुई क्रिया नित्य है। संयोग * स्वामी जी जो यह कहते हैं कि “परमात्माका स्वभाव मैंने अति के माधार पर क्रिया बतलाया है न कि सृष्टि रचना "सो ठीक नहीं क्यों कि आपत्रे श्रुति का कोई प्रमाण नहीं दिया। आपने जो पूर्व ही "स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च" कहा था सो श्रुति का नहीं वरन वह श्वेता बेतर उपनिषद् अध्याय छः का मन्त्र पाठवां है और उसका पूरापाठ
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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