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________________ (८१) नियम और व्यर्थ कार्य इस संसारमें हो रहे हैं। जड़ पदार्थों में भी स्वयोग्य कार्य करने की शक्ति होनेसे निमित्तकी प्राप्तिपर नियम पूर्वक कार्य हो स. कते हैं; यथा सूर्य चन्द्रादिक का भमण और ग्रहण प्रादि । अनेक गुणोंके समुदायको द्रव्य कहते हैं और प्रत्येक गुण क्षण प्रतिक्षण अवस्था से अवस्थान्तर हुमा करता है। प्रत्येक पदार्थमें क्षण प्रतिक्षण उसके पूर्वावस्थाको प्रलय और उत्तरावस्थाको सृष्टि सदैव हुआ करती है और इस प्रकार अपने प्र. त्येक पदार्थक अवस्थासे अवस्थान्तर होनेसे जगत् भी सदैव चला ( रूप बदला ) करता है और अपने इस रूप बदलने में वही वही पदार्थ उपादान कारण और अन्य पदार्थ निमित्त कारण हैं। कोई ईश्वर कदापि नहीं । ज. गतमें कार्य दो प्रकारके हैं एक तो ऐसे कि जिसका कर्ता है, जैसे घटका कर्ता कुम्भकार । दूसरे ऐसे कि जिनका कर्ता कोई नहीं हैं, जैसे मेघ वृष्टि घासकी उ. स्पत्ति इत्यादि । अव इन दो प्रकारके कार्योंमेंसे घदादिकका कर्ता देखकर जिनकाकर्ता नहीं दीखता है, उनका कर्ता ईश्वरको कल्पना करते हो सो मापकी इस कल्पनामें हेतु क्या है ? यदि कहोगे कि कार्यपणा ही हेतु है तो यह बताइये कि यदि कार्य होय पर उसका कर्ता नहीं होय तो उसमें क्या बाधा आवेगी ? यदि उसमें कोई बाधा नहीं भावेगी तो आपका हेतु 'शं. कित व्यभिचारी' ठहरा । क्योंकि जिस हेतुके साध्यके प्रभावमें हनेपर किसी प्रकारको बाधा नहीं भावे उसको शंकित व्यभिचारी कहते हैं। जैसे किसीके मित्रके चार पुत्र थे और चारों ही श्याम थे कुछ कालके पश्चात् उसके मित्र की भार्या पुनः गर्भवती हुई, तब वह मनुष्य कहने लगा कि मित्रकी भार्याके गर्भवाला पुत्र श्यामवर्ण होगा, क्योंकि वह मित्रका पुत्र है, जो मित्रके पुत्र हैं, वे२ सब श्यामवर्ण हैं, गर्भस्थ भी मित्रका पुत्र है, इस लिये श्यामवर्ण होयगा । परन्तु मित्रपत्र यदि गौरवर्ण भी हो जाय तो उसमें कोई बाधक नहीं है। इस ही प्रकार यदि कार्य, कर्ताके बिना भी होजाय तो उसमें बाधक कौन ? म्याय शा. खका यह वाक्य है कि अन्वयतिरेकगम्यो हि कार्यकारण भावः अर्थात् कार्यकारणभाव और अन्वयव्यतिरेकभाव इन दोनों में गम्य गमक याने व्याप्य पापक संबंध है । जैसे अग्नि और धूम इनमें व्याप्य व्यापक संबंध है; अग्नि व्यापक है और धूम व्याप्य है। जहां धूम होयगा वहां अग्नि नियम करके होगी परन्तु जहां अग्नि है वहां धूम होय भी और नहीं मी होय। जैसे तप्त लोहेके गोलेमें अग्नि तो है परन्तु धम नहीं है । भावार्थ कहनेका यह
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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