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________________ (५१) था कि शास्त्रार्थ परसों से हो और जैन समाज का कहना यह था कि जब आर्यसमाज शास्त्रार्थ को सर्वदा तय्यार है तो एक दिन क्यों नष्ट किया जावे वैरिष्टरसाहब ने कहा कि हमलोग इतना शीघ्र प्रवन्ध नहीं कर सकते क्यों. कि हमको पानी फर्श रोशनी आदि का प्रबन्ध करना होगा। इस पर कहा गया कि यह प्रबन्ध ऐमा प्रबन्ध नहीं जिसमें कि एक दिन व्यर्थ नष्ट किया जावे । वैरिष्टर साहब ने कहा कि एक दिन में यह प्रबन्ध नहीं हो सकता इसपर बाबू प्यारेलाल जी आदि प्रतिष्ठत जैनों ने पानी फर्श रोशनी भादि का प्रवन्ध अपने जिम्मे लेने कहा पर आर्यममाज अपनी ही जिद पर कायम रहा और एक भी बात न सुनी। हम लोगों ने जिस प्रकार आर्य समाज की और सब बातें मान ली और मानते जाते थे उसी प्रकार समय के विषय में उसकी परसों की बात मान लेने पर हमलोगों को विश्वस्तनीय रीति से इस बात का पता लग गया था कि आर्य समाज एक दिन की बीच में मोहलत चाहकर मैजिष्टेट को फिसाद होने से शान्ति भंग का अन्देशा दिखा उसके हुक्म से शास्त्रार्थ बन्द कराना चाहता है। पर हमलोगों को यह बात कदापि इष्ट न थी-हम लोग चाहते थे कि शास्त्रार्थ हो ही जाय इस कारण हम लोग 'शास्त्रार्थ कल से ही प्रारम्भ हो इस बात पर डटे रहे और आर्यस. माज की हर एक बात को जो कि उनका मेम्बर या पैरोकार शास्त्रार्थ परसों से प्रारम्भ होने के विषय में कहता था युक्ति और प्रमाणों से खण्डन क. रते रहे। इस बाद विवाद के समय में अजमेर के आर्यसमाजियों ने अपनी असभ्यता की पराकाष्टा दिखला डाली। वह लोग चाहते थे कि हमलोग उनसे तंग होकर किसी प्रकार भार्यसमाज भवन से उठकर चले जायँ जिससे कि उनको हमारे शास्त्रार्थ से हट जाने की बात प्रकाशित करने का मौका मिले। उन्होंने इसके अर्थ ऊपरके छजजोंसे मिही सिर पर डालना, फर्श उठाना लोगोंसे भिड़ना और अपने प्रधान वैरिष्टर साहवके रोकने पर भी बोलते जाना प्रादि कार्य किये पर शोक कि हम लोगोंके शान्तिता पूर्वक उनके सह लेनेसे वे सब व्यर्थ गये। वैरिष्टर साहवका व्यवहार भी अन्त में प्राक्षेपणीय रहा और उन्होंने कई ऐसी बातें कहीं जो कि किसी सभ्य पुरुषको अ. पने घरपर बुलानेसे आये हुये सज्जनोंसे कदापि न कहना चाहिये थीं । जब इन उपायोंसे काम न चला तव यह कहा गया कि चलो अभी शास्त्रार्थ कर
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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