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________________ ( 8 ) द्वानोंसे जैन सिद्धान्तों के अध्ययन करने का था कि इतने में ही ता० ३० जन के शास्त्रार्थमें भारी पछाड़ खानेसे अपने टूटे हुए मानकी मरम्मत करने के अर्थ समागने उनको जिस तिस प्रकार पुनः आर्य समाजी बनाने का प्रयास किया है ।,, शम्भुदत्तजी के पूर्व ही जैन मित्र के सहायक सम्पादक होने का समाज को स्वप्न हुआ होगा और उनकी ज्ञान गोली न मालूम किसपर चल रही है । नहीं जानते कि सहारनपुर के कौन से तीरन्दाज हैं और उनकी तोरन्दाजी किसपर हो रही है । यदि समाज में इस सिंह के बच्चे को बन्द करने की शक्ति है तो सामने मैदान में श्रावे और वन्द करे। हम तो यही क हैंगे कि: रे गयन्द मद अन्ध ! छिनहुं समुचित तोहि नाहीं । वसित्रो अव या विपिन घोर दुर्गम भुहिं माहीं ॥ गुरु शिलानि गज जानि नखनसों विद्रावित करि । • गिरि कन्दर महं लखौ गर्जता रोषित केहरि ॥ समाज के कागज़ी अज्ञान गोलोंसे असली सिंह व लोक शिखर और शिला उड़ा देनेका व्यर्थ प्रयत्न फूलों से पहाड़ उड़ा देने के समान अत्यन्त हास्यास्पद है। वारह दोष हम लोगोंके टट्टी के बाड़में हो जाने और शास्त्रार्थके अर्थ छोकरोंको आगे कर देनेका है । परन्तु यह कहिये कि श्री जैन कुमार सभा ने कब यह कहा और लिखा कि शास्त्रार्थ हम करेंगे । उसके सब विज्ञापनों से शास्त्रार्थ करने वाले का नाम श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा ही प्रगट होता है फिर नहीं जानते कि प्राय्र्यममाज क्यों हम लोगोंके टहीके झाड़में हो जाने और छोकरोंको शाखार्थके अर्थ आगे कर देनेका दोषारोपण करता है । यदि यह कहो कि इस विषय के विज्ञापन श्री जैमकुमार सभा के नाम से प्रकाशित होते थे इनसे ऐसा अनुमान वांधा गया तो क्या किसी पुरुषके ऐसा कहने से कि अमुक पुरुष आपसे शास्त्रार्थ करने को उद्यत हैं श्राय्र्यसमाज यह समझेगा कि कहने वाला पुरुष ही शास्त्रार्थको उद्यत है यदि ऐसी ही समझ है तब तो हो चुका । सज्जनो ! आपने देखा कि किस प्रकार प्रार्थसमाजने मिच्या वातें प्र काशित कर सर्व साधारण को धोखेमें डालना चाहा है पर इसमें आश्चर्य आप बिल्कुल न मानें क्योंकि जब आये नाजके प्रवर्तक स्वामी दयानन्दजी
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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