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________________ प्राणि । विषयान्तरं न गच्छामि ईश्वर एककर्तासत्प्रतिपक्षहेत्वाभासस्य किं लक्षणं - (भावार्थ) आपने कहा सो ठीक है। कर्मको द्रव्य जिसने तर्क संग्रह पढ़ा है वो भी नहीं कहेगा । द्रव्य में पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, प्रात्मा, मन, यह नव द्रव्य मानी हैं। विषयसे विषपान्तरको मैं नहीं जाता हूं ईश्वर कर्ता है सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभाम दिया सों हेत्वाभासका लक्षण क्या है। ___ न्यायाचार्यजी-कर्मणो द्रव्यत्वं गुणापर्ययवत्त्वेन साधयामः भन्यथा जी. घद्रव्य सम्बन्धे विभावपरिणमनक्रिया कथमुपपद्येन बन्धो द्रव्य द्रध्ययोर्भवति बन्धमन्तरा विभाव परिणतिर्न स्यात् कदाचिन् नैयायिकमतमोक्रियते कदा. चित् सांख्यमतानुसारेगा प्रकृति जीवेश्वरपदार्थत्रयं कल्प्यते हेत्योभासलक्षणं च पृष्टं तत्रेदं महे यादृश विशिष्ट विषयनिश्च पविशिष्ट पादृश विशिष्ट विषयफत्वं अनुमिति प्रतिवन्धकतानतिरिक्तवृत्तिं तद्रपाघटितः अनुमिति प्रतिवन्धक तायां यदपावच्छिन्न विषयत्वं प्रयच्छेदकं तादृशं यत्स्वावच्छिन्नाविषयप्रतीति विषयतावच्छेदकं तद्र पावच्छिनाविषयप्रतीति विषयतावच्छेदकं यत्स्वं तदवच्छिन्नोऽनाहार्या प्रामारयज्ञानानास्कन्दित निश्चयवृत्तित्वबिशिष्टयद्रपाव च्छिन्न विषयकत्वं अनुमिति प्रतिवन्धकतानतिरिक्तवृत्तितत्त्व हेत्वाभामत्वं ईश्वरो यदि कर्ता स्यात् नित्यव्यापके क्रियाहानिःञ्चिान्वयव्यतिरेकगम्यो हिकार्यकारणभावो न चेश्वरेणा देशकालव्यतिरेको घटते नित्यत्वाद् व्यापकत्वाच्च ( भावार्थ ) कर्म द्रव्य है यदि कर्मको गुण माना जाय तो विभाव परिगति का कारण नहीं होतक्ता क्योंकि द्रव्य का द्रव्य के साथ वन्ध होने पर बैभावित परिणमन होता है यह वात अंशुद्ध जीव द्रव्य में अनुभत है । क. भी आप नैयायिक मतके अनुमार नौ द्रव्यों को मानकर कर्म द्रव्य नहीं हो सत्ता ऐमा कहते हैं + कभी जीव ईश्वर प्रकति इस तरह तीन पदार्थ मानते हैं यदि ईश्वरको कर्ता माना जाय तो व्यापक क्रिया नहीं हो सक्ती क्योंकि जो पदार्थ जितने अंश में उमा ठस भरा हुआ है उममें देश से दूसरे देशको प्राप्त होना सूप क्रिया हो नहीं सक्ती कितना ही हुशियार नटका वालकहो लेकिन अपने आप अपने कन्धे पर नहीं बैठ सक्ता अथवा कितनी ही पैनी तलवार क्यों नहीं हो पापही अपने को नहीं काट सक्ती ईश्वर जन सब जगहमें ठसाठस भरा हुआ है उसमें परमाणु ओंको प्रेरणा करना ऐसी क्रिया हो नहीं सक्ती । ईश्वर के साथ प्रथिव्यादि कार्यों का अन्वयव्यतिरेक भी नहीं बनता क्योंकि जहां जहां पृथिव्यां दिक हैं वहां वहां ईश्वर है इसमें कोई प्रमाण नहीं अतः अन्वय नहीं बनता जहां जहां ईश्वर नहीं हैं वहां २ पृथिव्यादि नहीं है ऐषा देश
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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