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________________ ( १९५ ) त हुई । यदि चोर स्वतंत्रता से धनको चुराता है तो ईश्वरने फलक्या भुगाया इधर तो ईश्वर चोरके द्वारा छन चुरबावै उधर पुलिसको खबर करे कि तुम चोरको गिरफ्तार करलो यह कहां तक न्याय हो सक्ता है। भूख लगने पर खाना रूप कार्य करनेसे सुख रूपी फन वही भोगता है जहर खाना कार्य भी जीव करता है ओर उसका फल मरण भी वही भोगता है । इस लिये मोग करने में परतंत्र है इस नियममें व्यभिचार है । शास्त्रीजी - पद्भवद्भिःप्रतिपादितं तत्सम्यक् ससर्वेषांपितारक्षकः यदि फल भोगे परतन्त्रोनस्यात् कः फलं भोजयेत् यदि कर्मद्वारा भोजयेत्तदा कर्मतु गुणस्तन कथं सुख दुःखदातृत्वं गुणे गुणानङ्गीकारात् । ( भावार्थ ) जो आपने कहा सो हम मानते हैं । वह ईश्वर सबका पिता हे रक्षक है । यदि जीव फल भोगमें परतंत्र नहीं मानो तो कौन फल भुगोवैगा । कर्म तो गुण है और गुणमें सुख दुःख देना आदि गुण रह नहीं सक्ते । भोजन करना यही जीवका कर्म है । फन देना ईश्वरकृत है । 2 न्यायाचार्य्यजी – यदि ईश्वरः सर्वेषां पितास्यात् रक्षकश्च तदा पदार्थ सृष्टौ तस्य निमित्तकारणतां व्याहन्येत रदयरक्षकभावो निमित्तनैमित्तिकभाव मतिवर्तते यत्र रपरक्षकभावो यथा रूप्यकाणां रक्ष कोभृत्योनस भृत्यो रूप्यकाणां निर्माता किन्तु गोप्तैव किञ्च कर्मणां च द्रव्यत्वाल गुणत्वेनोपकल्प्यमानानां ताविक्षिप्त दोषानुषङ्गः नच सर्वथा कर्मणामेत्र सुखदुःखोत्पादकत्वमिति मन्यामहे एकान्तं । विषयाद्विषयान्तर गतिदोषानुषङ्गश्च भवतां निग्रहस्थानाप ( भावार्थ ) यदि ईश्वर सबका पिता अर्थात् ( पातीतिपिता ) रक्षक है तो ईश्वर यावत् कार्यमें कारण हो नहीं सक्ता क्योंकि रक्षक उस चीजका हुआ करता है जो चीज़ पहले से मौजूद हो जैसे कि रुपयोंकी रक्षा रोकडिया या किसी नोकरको दी जाती है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि रोकड़िया उन रुपयोंको बनाता है किन्तु रुपये पहले ही से बने हैं इसी तरह कार्य भी ईश्वरसे भिन्न अपने कारणोंसे आत्मलाभ कर चुके हैं तब ईश्वर क्या करता है । आपने कर्मको गुण समझ रक्ता है सो ठीक नहीं है। कर्म द्रव्य पदार्थ है और उसमें सुख दुख दातृस्व शक्तियां मौजूद हैं । ऐसा एकान्त भी नहीं है कि कर्ता हर्ता भोक्ता कर्म ही है । आप ईश्वर कर्तृत्व विषयको छोड़कर विषयान्तरकी तरफ दौड़ते हैं । यह कर्तव्य आपका निग्रहस्थान करने वाला है । शास्त्रीजी - यद् भवद्भिः प्रतिपादितं तत्सम्यक् । यस्तर्कसंग्रहमधीते सो कर्म द्रव्यश्वेन नाङ्गीकरोति । पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकाल दिगात्ममनांसि नवद्र
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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