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________________ जाहिर उद्घोषणा नं० ३. ७५ से चलाया. इसकथनसे अच्छीतरहसे साबितहोताहै कि सर्भशासनमें लोपहुए धर्ममार्गको तीर्थंकर भगवान्के सिवाय कोईभी गृहस्थ कभी नहीं चला सकता परंतु धर्मके नामसे पाखड अवश्य फैला सकताहै । इसी तरहसे वीरप्रभुके शासनमें शुद्धसंयम पालन करनेवाले बहुत आचार्य, उपाध्याय और साधु विद्यमान विचरने वाले मौजूद होनेपरभी, जिसके जाति-कुलका ठिकाना नहीं, जिसका जनसमाजमें जन्म होने काभी कोईप्रमाण नहीं, जिसने स्वाद्वाद नयगर्भित अतीव गहन आशय वाले जैनशास्त्रोंको किसी गुरुके पास पढेनहीं, जिसको संस्कृत प्राकृत व शुद्ध भाषाकामी पूरा २ ज्ञान नहीं, जिसने किसी तरह के श्रविकके व्रतभी लिये नहीं, ऐसा सर्वथा धर्मके अयोग्य, अज्ञानी पुस्तक लिखकर रोजी चलाने वाला लुका लिखारीकी पुस्तक लिखनेकी रोजी बंध होने से सर्वसाधुओंको भ्रष्टाचारी; झूठा उपदेशदेने वाले बनाकर भगवान्का सच्चा धर्म लोपहुआ ठहराकर फिर आप सच्चा उपदेश देनेवाला भगवानके धर्मका प्रचारक बनगया, यहतो असंयति पूजारूप प्रत्यक्षही झूठा ढोंगहै इसलिये लुकाजीने भस्मग्रहके उतरनेपर दयाधर्मके नामसे सर्वेक्ष शासनमें भोलेजीवोंको भ्रममें डालनेकेलिये मिथ्यात्व फैलायाहै। ८८. फिरभी देखिये जिसको दुष्टग्रह लगे उसको उससमय कष्टपडताहै और ग्रह उतरनेपर कष्ट मिटकर शांति मिलतीहै, यह बात प्रसिद्धहीहै । इसीतरहसे भस्मग्रहके कारण १२वर्षी कालमें तथा विधर्मी धमद्वेषी उपदेशकों व राजाओंके उपद्रवसे हजारों जैन साधुओंकी और लाखों श्रावकोंकी हानि वगैरह अनेक उपद्रव जैन समाजपर हुए परंतु भस्म ग्रहके उतरेबाद वैसे उपद्रव मिटे और फिरसे शांतिपूर्वक जैन समाजकी प्रभावना होने लहै । श्रीहीराविजय सृरिजीने तथा श्रीजिनचंद्र सरिजी वगैरहोंने अकबर आदि बादशाहोंकोप्रतिबोधकर अमारी घोषणा के परवाने करवाये उसीके अनुसार आजतक बहुत जगह पर्युषणा आ. दि जैन पर्वोमें अमारी घोषणा होतीहै, लाखों जीवोंकी दया पलरहीहै। इसलिये कल्पसूत्रमें बतलाये मुजब भस्म ग्रहके कारण जिन साधुओंकी पूजा-मान्यता कम होतीथी उन्हींकी परंपरा वाले साधुओंकी भस्म ग्रह के उतरे बाद पूजा-मान्यता विशेष होने लगीहै (इस विषय संबंधी तथा जिनराजकी मूर्ति पूजा संबंधी ढूंढियोंकी सब शंकाओंके समाधान भीविजयानंद सूरि ( आत्माराम ) जी महाराजने “ सम्यक्त्व शल्यो
SR No.032020
Book TitleAgamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherKota Jain Shwetambar Sangh
Publication Year1927
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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