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________________ जाहिर उद्घोषणा करे तो उसके पापसे वह अकेलाही डूबता है, उसपापसे भी मिथ्याउपदेश देनेवाला अपनी आत्माको व अपने सर्वभक्तोंको डुबाने वाला होनेसे अनंतगुणा अधिक पापी होता है तथा मिथ्यात्वकी परंपरासे अनेक जीव डूबते हैं और जीव हिंसादि सब पापकर्मोंकी आलोयणा (प्रायश्चित्त) हो सकती है उससे वह पापकर्म छूटभी सकते हैं, परंतु मिथ्या उपदेश देनेवाले उत्सूत्र प्ररूपककी तो कोई आलोयणाभी नहीं होसकती, उसको तो 'गौशाले' की तरह संसारमें उसके विपाक भोगनेही पडतेहैं । तथा शरणे आयेकी रक्षा करना यह उत्तम पुरुषका श्रेष्ठ धर्म है, परन्तु विश्वास जानकर शरणे आनेवालोंका नाश करनेवाला विश्वासघाती महापापी कहा जाता है. तैसेही संसारी दुःखोंका नाश करनेके इरादे से मोक्षमार्गका सच्चा रास्ता बतलानेके विश्वाससे सत्य धर्म उपदेश सुनने को आनेवाले भव्यजीवोंको जिनाशा विरुद्ध होकर मिथ्या उपदेश देकर मिथ्यात्वमें डालनेवाला शरणेआयोंका शिरछेदन करनेवालेसे भी अधिक दोषी होता है । ऐसे मिथ्या उपदेश देनेवालेको मानने- पूजने वाले, उसका वचन माननेवाले, संगकरने वाले अपने सम्यक्त्वको हानि पहुंचाते हुए मिथ्यात्वी बनते हैं, जिनाशाको उत्थापन करते हैं, तथा अपना धर्म कर्म व्यर्थ ते हैं और संसार बढाते हैं. इसलिये मोक्षजानेकी चाहना करनेवाले आत्मार्थियों को मिथ्याउपदेश देने वालोंका तथा मिथ्या बातका अवश्य त्याग करके जिनाशानुसार सत्यबातका धर्मोपदेश देनेवालोंका संगकर के सत्यबातको ग्रहणकरके अपने धर्मकार्य- मनुष्यभवको सफल करना चाहिये तथा अपनी आत्माका कल्याण करना चाहिये । और कभी अज्ञान दशासे अपनेसे उत्सूत्र प्ररूपणा होगई हो या अपनी परंपरा से चलीआती होतो उसको समझनेपर त्याग करनेमें लोक लज्जा या गुरु परंपराका हठन रखना चाहिये. जो प्राणी अपने गुरु के मोहसे, समुदायके मोहसे, बहुत वर्षोंके मतपक्षके वेषके मोहसे, दृष्टिरागी परिचयवाले भक्तोंके मोहसे या लोकपूजादि किसीभी कारण से उत्सूत्र प्ररूपणाकी झूठी बात को नहीं छोडते, जीवें तबतक उसीकोही चलाया करते हैं सो बहुत लोगोंके मिथ्यात्वका हेतु होनेसे अपने मनुष्यभवको तथा जैन धर्मको हारतेहैं और मिध्यात्वसे संसार बढाते हैं
SR No.032020
Book TitleAgamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherKota Jain Shwetambar Sangh
Publication Year1927
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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