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________________ ४४ जाहिर उद्घोषणा नं० २. होनेसे साधु और श्रावक दोनों को संसारमें डुबाने वाला है इसलिये भवभीरु अत्मार्थियों को अवश्य त्याग करने योग्य है । ३६. ढूंढियों में जब कोई दीक्षा लेता है तब तपस्याके पूरके महोत्सवकी तरह वंदना के लिये आनेवाले लोगोंकी भक्तिमें अनेक तरहके आरंभ में छकायके अनंत जीवोंकी हिंसाकरते हैं तथा विशेषतामें वरघोडे में मुसल्मान, ढोली आदिको बुलवाकर नगद पैसे देकर खुले मुँह वार्जित्र बजवातेहैं, हजारों लोग दोडादोडसे त्रस स्थावरं जीवोंका नाश करते हैं, लुगाईयें खुले मुँह गीत गाती हैं, प्राहुणोंकी भक्तिके लिये मीठाईयोंका भठ्ठी खाना चलता है यहभी हिंसाका कार्य त्याग करना योग्य है । ३७. ढूंढिये श्रावक श्राविका मुंह बांधकर स्थानकमें इकट्ठे होकर दया पालते हैं, उसरोज घरमें बनी हुई ताजी रसोई नहीं खाते और हलवाईके वहांसे मणोंबंध मीठाई मौल मंगवाकर खातेहैं, बड़े खुशी होते हैं, आज हमने छ कायकी हिंसा टाली, बडी दया पाली. ढूंढियोंका यह कर्तव्यभी तत्त्वदृष्टिसे बड़ी हिंसाका हेतु है, क्योंकि हलवाईके भट्टीखानेमें कीडे, मकोडे, रात्रिको पतंगीये वगैरह अनेक त्रस जीवौकी हिंसा होती है अयत्नासे अनछाना वासी जल व बहुत रोजका जीवाकुल मेदा, खांड़का रस वगैरह में मक्खी मच्छर आदि हिंसाका पार नहीं है तथा मलीनता, अशुद्धि प्रत्यक्षही है. यह सब हिंसा मीठाई मौल मंगवाकर खाने वालों को लगती है । जिस प्रकार कसाई खाने में जितनी जीव हिंसा होती है उसमें जीवों को खरीदने के लिये व्याज से रुपया देने वाले, बेचने वाले, दलाली करने वाले, खरीदने वाले, जीव मारने वाले, नौकरी करने वाले, मांस बेचने वाले, पकाने वाले और खाने वाले यह सब लोग हिंसाके पापके भागी होते हैं. उसी प्रकार हलवाईकी हिंसाभी मौल मंगवाकर खाने वाले सबको लगती है इसलिये सामायिक आदि व्रतवाले श्रावकोंको हलवाई के वहांकी वस्तु मौल मंगावाकर खाना यह अनंत हिंसाका पाप, जिनाज्ञा की विराधना और मिथ्यात्व बढाने वाला होने से सर्वथा अनुचित है । देखो - कई २ व्रतधारी श्रावक-श्राविका १४ नियम धारण करनेवाले और अन्यभी विवेकवाले बहुतसे श्रावक हलवाई के वहांकी मीठाई खा नेका त्याग करतेहैं, यह प्रत्यक्ष प्रमाण है । ढूंढियोंको इस बातका ज्ञान नहींहै, जिससे दया पालनेके रोज व्रतमें रहते हुएभी हलवाई खानेकी हिंसाके भागी होतेहैं । यह अज्ञान दशाभी हिंसाकी हेतु होनेसे त्याग करने
SR No.032020
Book TitleAgamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherKota Jain Shwetambar Sangh
Publication Year1927
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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