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________________ ... फिर भी, कालादिदोष के कारण, हमारे पूज्य श्रमणसमुदाय में कहीं कहीं कुछ त्रुटियाँ प्रविष्ट हो गई हैं और अमुक साधुसाध्वी जैन श्रमणत्व के अनुरूप जो विचारशुद्धि, वाणीशुद्धि व आचारशुद्धि होनी चाहिए, उसकी उपेक्षा करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अगर उनकी इन क्षतियोंको न रोका जाय तो पूज्य सुविहित साधु-साध्वियों की प्रतिष्ठा के साथ ही साथ जैन शासन की प्रतिष्ठाको भी हानि पहुंचने की संभावना है। पूज्य श्रमणसमुदाय की आचारशुद्धि में चतुर्थ और पंचम महाव्रत के पालन की तत्परता महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, क्यों कि चतुर्थ और पंचम महाव्रत के पालन की शिथिलता जैनेतरों की दृष्टि में भी जैन शासन को हीन दिखानेवाली हो जाती है। और पंच महाव्रतोंमें से इन अन्तिम दो महाव्रतों का भंग होने पर शेष प्रथम तीनों महाव्रतों का भंग भी अनिवार्य रूपसे हो जाता है। और एसा होने से साधुजीवनकी नींव ही हिल जाती है। अतः पूज्य आचार्य महाराजों, या उस उस समुदाय के नायक मुनिराजों, एवं विभिन्न साध्वीसमुदायोंकी प्रवर्तिनियों से निम्न लिखित बातों का दृढता और निष्ठापूर्वक अमल करने की प्रार्थना की जाती है : (१) दीक्षार्थी की पसंदगी व नवदीक्षित की सारसंभाल दीक्षा यह अहिंसा, संयम और तपप्रधान जैनधर्म द्वारा कही गई आत्मसाधना का सर्वश्रेष्ठ साधन है। और उसकी पवित्रता के ऊपर ही जैनधर्म, जैन संघ और जैन संस्कृति की पवित्रता और प्रभावनाका आधार है। अतः नवदीक्षित साधु-साध्वीजी महाराज, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, मन-वचन-काया की सावद्य प्रवृत्तियों से दूर रहकर, विशुद्ध आचारपालन द्वारा अपनी आत्मसाधक संयमयात्रा में अप्रमत्त होकर आगे बढ़ते रहें और श्रमणसमुदाय की शिथिलता को बढ़ाने में जरा भी योग न दें, इसके लिए दीक्षार्थियों की पसन्दगी के विषय में एवं नवदीक्षितों की सार
SR No.032018
Book TitleShwetambar Murtipuja Sangh Sammelan Prastav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharatiya Jain Shwetambar Murtipujak Shree Sangh Samiti
PublisherAkhil Bharatiya Jain Shwetambar Murtipujak Shree Sangh Samiti
Publication Year1963
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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