SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ परिच्छेद.] सागरदत्त और शिवकुमार. तो अपने मातापितासे पूछ ले वे आज्ञा देखें तो खुशीसे दीक्षा ग्रहण कर, 'शिवकुमार' बोला भगवन् ! मुझे अवश्य दीक्षा लेनी है जबतक मैं अपने मातापितासे पूछकर आऊँ तबतक मेरे ऊपर कृपा करके आप यहांही रहें, यों कहकर 'शिवकुमार' शीघ्रही अपने महलमें गया और मातापितासे बोला कि हे तात! आज मैंने 'सागरदत्तर्षि' की धर्मदेशना सुनी है उससे मुझे संसारकी असारता मालूम होगई है अत एव अब यह विनश्वर संसारका मुख मुझे भारभूत मालूम होता है, आप मुझे दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दो, मुझे आजसे लेकर मोहान्धकारको नाश करनेमें सूर्यके समान 'सागरदत्त' महात्माकाही शरणा है, 'शिवकुमार' का यह कथन सुनकर उसके मातापिता बोले कि हे वत्स ! योवनावस्थामें व्रत ग्रहण करना यह तुझे सर्वथा अनुचित है क्योंकि तूने अभीतक संसारके सुखोंका अनुभव नहीं किया, यही तो समय तुझे सुख भोगनेका आया है अभीसे तू इतना निर्मम क्यों बनता है ? वत्स! हमारे जीवितका आधार मात्र तो केवल तूही है तेरे पीछे हम किसके आधारसे जीवित रहेंगे? इस लिए हे पुत्र यदि तू मातापिताका भक्त है और यदि हमें पूछकर जाना चाहता है तो इस बातमें हमारी जुबानसे ना के सिवाय और कुछभी न निकलेगा । इस प्रकार मातापिताके वचन सुनकर 'शिवकुमार' ने दुःखित होकर वहांही सर्वसावधका त्याग करके भाव यतिपना धारण करलिया और यह कहकर कि मैं सागरदत्त महात्माका शिष्य हूँ मौन धारण करलिया, क्योंकि शास्त्रों भी कहा है कि मौनं सर्वार्थ साधकम् । अब 'शिवकुमार' को खानेपीनेको देते हैं तो कुछभी नहीं ग्रहण करता यदि बहुत आग्रहसे कहते हैं तो यही उत्तर मिलता है कि मुझे कुछ भी नहीं रुचता ।
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy