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________________ परिच्छेद.] प्रसन्नचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी. इस प्रकार सारे नगरमें अपनी विडंबना कराता हुआ “वल्कलचीरी" एक वेश्याके मकानमें प्रवेश कर गया और उस मकानको आश्रम समझकर वेश्याको ऋषि बुद्धिसे अभिवन्दन करके इस प्रकार मार्थना करने लगा कि, हे महर्षे! मैं तुमारे आश्रममें ठहरना चाहता हूँ और उसके किरायेमें तुम यह द्रव्य ग्रहण करो । वेश्या बोली कि, हे मुनिकुमार! यह तुमाराही आश्रम है तुम खुशीसे ठहरो । यों कहकर वेश्याने एक नापित (हजाम) को बुलवाया और उसको चार पैसे देकर कहा कि इसकी हजामत और नख वगैरह ठीक बनाओ, “वल्कलचीरी" की इच्छा नहीं थी तोभी नापितने वेश्याकी आज्ञासे वल्कलचीरीकी हजामत वगैरह बनादी। __अब हजामत होनेके बाद वेश्या "वल्कलचीरी" को स्नान कराकर उसका मुनिवेष उतारके रेश्मी वस्त्र तथा अच्छे अच्छे आभूषण पहराने लगी । “वल्कलचीरी" का वेष जब वेश्या उतारने लगी तब “वल्कलचीरी" बोला कि, हे महर्षे ! आजन्मसे जो मेरा यह मुनिवेष है इसे तुम मत उतारो । “वल्कलचीरी" के निषेध करमेपरभी वेश्या न मानी और उसका मुनिवेष उत्तारकर रेश्मी वस्त्र पहना दिये । “वल्कलचीरी" को यह कार्रवाई बिलकुल अच्छी न लगतीथी अत एव वह बिचारा बच्चोंके समान रोने लगा उस वक्त वेश्या कहने लगी कि, हे मुनिकुमार! इस आश्रममें आनेवाले अतिथियों का ऐसाही उपचार पद होता है और जो अतिथि इस उपचारको कराता है उसकोही यहां रहना मिलता है । वेश्याका यह कथन मुनकर "वल्कलचीरी" वहां रहनेके लोभसे वश किये हुए पसके समान मस्तकको धुक्ता हुआ वेश्या जो जो कराती है सो सो करता है । वेश्याने "वल्कलचीरी" के शरीरकी मालस कराके उसके बालोको सुगंधिकाले
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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