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________________ १६ - परिशिष्ट पर्व. - [पहला दिये उनको खाकर "वल्कलचीरी" बड़ा खुश हुआ और बोला कि हे महर्षे, ऐसे फल मैंने पहलेभी पोतनापुर आश्रममें रहने वाले मुनियोंके दिये हुए खाये थे और उन फलोंके खानेसेही मेरा चित्त बिल्लादि फलोसे खिन्न हो गया है अत एव पोतनापुर आश्रममें जाता हूँ। इसतरह जंगलमें बात करते हुए जारहेथे, इतने ही रस्तेमें एक चोर मिल गया और रथवानका अकस्मातही उसके साथ बड़ा भारी युद्ध हुआ परंतु रथवान बड़ा बलवान था अत एक उसने चोरको शीघ्रही पछाड़ दिया, मरते समय वह चोर बोला कि हे रथवान! तेरे जैसा बलिष्ट पुरुष मैने आजतक कहीं नहीं देखा यद्यपि तू मेरा वैरी है. तथापि मैं तेरी वीरतापर मुग्ध हूँ अत एव मेरे पास बहुतसा धन है इसे तू ग्रहण कर ले, यह कहकर चोर तो यमराजका अतिथि बन गया और वह धन उन तीनों जनोंने उठाकर रथमें भर लिया और वहांसे चल पड़े । कुछ अरसेमें जब "पोतनापुर" आ पहुंचे तब "रथवान" वल्कलचीरीको कहने लगा कि, हे तापसकुमार ! जिस पोतनापुर आश्रममें तू जाना चाहता था, वह पोतनापुर आश्रम यही है । यों कह कर रथवानने “वल्कलचीरी" को कुछ धनभी दिया और मुस्करा कर बोला कि, हे तापसकुमार ! इस आश्रममें विना द्रव्यके कहींभी आश्रय नहीं मिलता अत एव तूने जिस आश्रममें जाना हो वहांपर जाकर प्रथम इसमेंसे कुछ धन दे देना जिससे तुझे वहाँपर आश्रय मिल जाय । “वल्कलचीरी" रथवानके दिये हुए धनको लेकर शहरमें जा घुसा और ऋषि बुद्धिसे नगरवासी सब मनुष्योंको अभिवन्दन करता हुआ फिरने लगा और कितनेक नगरवासी जन कुतूहलसे उसके पीछे पीछे फिरते हैं,
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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