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________________ परिशिष्ट पर्व. [तेरहवा. नहीं कर सके। 'प्रणाममित्र' ने 'सोमदत्त' को ऐसे निर्भय स्थानपर पहुँचा दिया जहांपर भयका लेश भी नहीं । 'सोमदत्त' निःशंक होकर विषयसुख भोगता हुआ अपने समयको सानन्द व्यतीत करने लगा। इसका उपनय यह है; 'सोमदत्त' के समान सांसारिक जीव है, सहमित्रके समान शरीर है, पर्वमित्रके समान स्वजन संबंधि, प्रणाममित्रके समान सर्वज्ञ प्रणित धर्म है और क्रूर राजाके तुल्य कर्मराज है । जब कर्मराज कृत मरण विपदासन्न यह जीव होता है तब जिसे प्रथम अनेक प्रकारके पापकर्म करके भी सुखी रक्खा है उस शरीरपे मूर्छा करके उससे कुछ मदद चाहता है परन्तु वह ऐसा कृतघ्न मित्र है कि जब कर्मराज कुपित होता है तब शीघ्रही मुँह फेरके कोरा जवाब दे देता है । पर्वमित्रके समान खजन संबंधि मरणापदामें दवादारु करके उसके हृदयको कुछ थोड़ासा शान्तियुक्त करते हैं और उसके दुःखसे मोहवश होकर कुछ दुःखभी मनाते हैं, परन्तु कर्मराजसे बचानेके लिए असमर्थ होकर अन्तमें वे भी जवाब दे देते हैं। प्रणाममित्रके समान धर्म है जिसे कभी कभी आदर देता था, अन्तमें इस जीवको लाचार होकर इसकाही शरणा लेना पड़ता है। यह ऐसा कृतज्ञ और परोपकारी मित्र है कि इसे भावसहित यदि थोड़ासा भी आदर सन्मान दिया जाय तो यह अपनी ऐसी कृतज्ञता दिखलाता है कि एक भवमें सच्चे दिलसे मैत्री की हो तो के भव तक देवलोकादियोंके सुखरूप फलको चखाता है और निर्भय स्थानपर लेजा छोड़ता है, परन्तु सांसारिक जीव मोहके विवश होकर इस परम कृतज्ञ मित्रको भुलाके समयपर साफ जवाब देनेवाले कृतघ्न मित्रोंसे अधिक मैत्री करते हैं।
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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