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________________ १२८ परिशिष्ट पर्व. दशवाँ.] चोरोंने क्रुधित होकर उसके मंचे (टाँड) को तोड़ डाला, 'टाँड' के टूट जानेपर वह :कृषक' भी बिचारा निराधार होकर जमीनपर गिर पड़ा, चोरोंने ईट पत्थरसे खूब उसकी वैय्यावच की अर्थात् चोरोंने यष्टी मुष्टीसे उस 'कृषक' को खूब मारा और अधमरा समझके उसके हाथ पाँव बाँधकर गेर दिया। चोरोंने उसके तनसे सब कपड़े उतारके उसे बिलकुल नंगा कर दिया । देवयोग उस दिन रातको वे गायें भी उसके खेतके समीपही थीं, अत एव उन चोरोंने अपने गये हुये गोधनको प्राप्त करके अपना रास्ता पकड़ा । प्रातःकाल सूर्यका उदय होनेपर गाँवके ग्वाले वहांपर आये और उस 'कृषक' की दुर्दशा देखके साश्चर्य पूछने लगे-क्यों भाई ! आज क्या कोई देवता रूष्टमान हुआ है ? तुमारी यह दशा क्यों ? 'कृषक' बोला धमेद्धमेनाति धमेदति ध्मातं न शोभते । ध्मातेनो पार्जितं यत्तदति ध्मातेन हारितं ॥ १ ॥ अर्थात् मैंने जो कुछ शंख बजानेसे उपार्जन किया था वह सबही अत्यन्त बजानेसे हार दिया और इस दशाको प्राप्त हुआ हूँ। इसलिए स्वामिनाथ ! आप भी उस 'कृषक' के समान अतिशय करते हो मगर इस अतिशयका फल वह होगा जो उस 'कृषक' को हुआ। अमृतके समान मीठे वचनोंसे धीर मनवाला 'जंबूकुमार' बोला-पिये ! 'शैलेयवानर' के समान में बंधनोंसे अनभिज्ञ नहीं हूँ। यथा विन्ध्याचलकी एक कंदरामें एक बड़ा भारी 'वानर' रहता था । उस वानरने बड़े बड़े सबही वानरोंको वहांसे दूर भगा दिया था क्योंकि वह सबसे बलवान था, इसलिए जो कोई भी 'वानर' उसके सामने होता वह उसकाही नाक-कान काट
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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