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________________ ११४ । परिशिष्ट पर्व. . [आठवा. चोरी होती थी, उस दिन अर्थ रात्रिके समय पहरेदारोंने उस चोरको देख लिया और पुकारकर उसके पीछे भागे, दैवयोग वह चोर भी उसी मठकी ओर भागा जिसमें रानी और उसका जार हाथीवान सोरहा था । जब कहीं भी जान बचानेका ठिकाना न मिला तब वह चोर मठके अन्दरही आघुसा और पहरेदारोंने भी आकर उस मठको चारों तरफसे घेर लिया कि प्रातःकाल होनेपर चोर हमारे कवजेमें आजायगा । अर्ध रात्रिका समय था और फिर कृष्णपक्ष ऐसा तो अन्धकार था कि अपना हाथ अपने आपको न देख पड़ता था, वह चोर जन्मान्धके समान अंधकारमें टटोलता टटोलता वहांही जापहुँचा जहांपर वे दोनों मुसाफर सोरहे थे । चारों तर्फ हाथ मारते हुवे 'चोर' के हाथ हाथीवानको लगे परन्तु निरभय होकर सोया था इस लिए उसकी निद्रा न खुली । जब पासमें देखा तो राजपनी भी वहांही सोई पड़ी थी, चोरका हाथ लगतेही उसकी झट नींद उड गई और उसकी नींद उड़तेही उसके हृदयमें विकार भी जानित होगया । कुछ मन्द स्वरसे राजपत्नी बोली-कौन है ? चोरने भी धीरेसे कहा कि मैं चोर हूँ और मेरे पीछे मुझे पकड़नेके लिए बहुतसे आदमी आरहे हैं इस लिए मैं यहां अपनी जान बचानेके लिए आघुसा हूँ। राजपत्नी बोली-हे महाशय ! यदि तू मुझे अपनी पत्नी बनावे तो निःसंदेह मैं तेरी जान बचा सकती हूँ । चोरने विचार किया कि मेरा बड़ा पुण्यका उदय है जो मेरी पत्नी बनेगी और मेरी जान भी बचावेगी । भला सुगन्धिवाला सुवर्ण मिले तो उसे कौन छोड़े ? । यह विचार कर चोर बोला-भला तू मुझे बता तो सही जिससे मेरे दिलमें किश्वास हो, किस तरह मेरी जान बचा सकेगी।
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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