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________________ परिच्छेद.] अठारा नाते. हालतमें पानीकी इच्छासे भागता हुआ जा रहा है । दैवयोग रास्तेमें एक बड़ी सघन छायावाला सहकारका वृक्ष था, उस सहकारकी सांद्र छायांको देखकर वह विचारा थका हुआ विश्राम लेनेके लिए वहांपर बैठ गया, वृक्षका शीतल पवन लगनेसे उसे कुछ शान्ति हुई और कुछ निद्रा भी आगई, निद्रा आनेपर उसने एक स्वम देखा, उस स्वममें उस 'अंगारकारक' ने वापी 'तालाव' कुवे आदि सर्व जलाशय पी लिये परन्तु उसकी तृप्ति न हुई, स्वप्नमेंही फिर उसने एक पुराना कुवा देखा, उस कुवेका पानी सुख जानेसे उसमें अब केवल कीचड़ही शेष रहा था उसमेंसे पानी लेनेके लिए असमर्थ होकर उस कीचड़को जीभसे चाटने लगा। भला विचार करो कि जिसने पानीसे संपूर्ण भरे हुवे वापी तड़ागादिको पी लिया वह कभी इस कीचड़वाले पानीसे तृप्त होसकता है ?। . उस 'अंगारकारक' के समान यह संसारी जीव है और 'वापी' तड़ागादिके जलके समान स्वर्गादि सुख समझने, जो जीव स्वर्गादि सुखोंसे भी तृप्त न हुआ वह जीव कीचड़के समान मनुष्य जन्म संबंधि सुखोंसे कदापि तृप्त नहीं होसकता । इसलिए हे 'पद्मश्री !' वृथा आग्रह क्यों करती है । संसारकी विचित्रताका विचार कर । .... .. 'पद्मसेना बोली-स्वामिन् ! सब जीव संसारमें कर्माधीन हैं और कर्मके अनुसारही सुख दुःख पाते हैं । इसलिए आप संतोषपूर्वक संसारके सुखभोगो और अनेक प्रकारकी युक्तियां देनी रहने दो क्योंकि संसारमें प्रवर्तक और निवर्तक ऐसे अनेकही. दृष्टान्त हैं जैसे 'नूपुर पंडिता' तथा 'गोमायु' की कया।
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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