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________________ ९२ गाथा समयसार नहीं है और किसी को उत्पन्न नहीं करता; इसकारण किसी का कारण भी नहीं है। कर्म के आश्रय से कर्ता होता है और कर्ता के आश्रय से कर्म उत्पन्न होते हैं; अन्य किसी भी प्रकार से कर्ता-कर्म की सिद्धि नहीं देखी जाती। (३१२-३१३) चेदा दु पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययटुं उप्पज्जइ विणस्सइ। एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे। उत्पन्न होता नष्ट होता जीव प्रकृति निमित्त से। उत्पन्न होती नष्ट होती प्रकृति जीव निमित्त से॥ यों परस्पर निमित्त से हो बंध जीव रु कर्म का। बस इसतरह ही उभय से संसार की उत्पत्ति हो। चेतन आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। इसीप्रकार प्रकृति भी चेतन आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है और नष्ट होती है। इसप्रकार परस्पर निमित्त से आत्मा और प्रकृति दोनों का बंध होता है और उससे संसार होता है। (३१४-३१५) जा एस -पयडीअटुं चेदा व विमुञ्चए। अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ। जदा विमुञ्चए चेदा कम्मफलमणंतयं । तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी।। जबतक न छोड़े आतमा प्रकृति निमित्तक परिणमन। तबतक रहे अज्ञानि मिथ्यादृष्टि एवं असंयत ॥ जब अनन्ता कर्म का फल छोड़ दे यह आतमा। तब मुक्त होता बंध से सदृष्टि ज्ञानी संयमी॥
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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