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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार (३०८ से ३११) दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं । जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह ।। जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते । तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि ।। ण कुदोचि वि उप्पण्णोजम्हा कज्जंण तेण सो आदा। उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि। कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि । उप्पज्जति य णियमा सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा॥ है जगत में कटकादि गहनों से सुवर्ण अनन्य ज्यों। जिन गुणों में जो द्रव्य उपजे उनसे जान अनन्य त्यों। जीव और अजीव के परिणाम जो जिनवर कहे। वे जीव और अजीव जानो अनन्य उन परिणाम से॥ ना करे पैदा किसी को बस इसलिए कारण नहीं। किसी से ना हो अत: यह आतमा कारज नहीं। कर्म आश्रय होय कर्ता कर्ता आश्रय कर्म भी। - यह नियम अन्यप्रकार से सिद्धि न कर्ता-कर्म की॥ जिसप्रकार जगत में कड़ा आदि पर्यायों से सोना अनन्य है; उसीप्रकार जो द्रव्य जिन गुणों से उत्पन्न होता है, उसे उन गुणों से अनन्य जानो। ___ जीव और अजीव के जो परिणाम सूत्र में बताये गये हैं; उन परिणामों से जीव या अजीव को अनन्य जानो। ..... यह आत्मा किसी से उत्पन्न नहीं हुआ; इसकारण किसी का कार्य
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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