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________________ बंधाधिकार ७९ मैं जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, बाँधता हूँ, छुड़ाता हूँ - ऐसी जो तेरी मूढमति है; वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या है। यदि वास्तव में अध्यवसान के निमित्त से जीव बंधन को प्राप्त होते हैं और मोक्षमार्ग में स्थित जीव मुक्ति को प्राप्त करते हैं तो तू क्या करता है ? तात्पर्य यह है कि तेरा बाँधने - छोड़ने का अभिप्राय गलत ही सिद्ध हुआ न, व्यर्थ ही सिद्ध हुआ न ? ( २६८ - २६९ ) सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए । देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं ।। धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च । सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं ।। यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच नारक देव नर । अर पुण्य एवं पाप सब पर्यायमय निज को करे । वह जीव और अजीव एवं धर्म और अधर्ममय । लोक और अलोक इन सबमय स्वयं निज को करे | यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच, नारक, देव, मनुष्य - इन सब पर्यायों और अनेकप्रकार के पुण्य-पाप भावों रूप स्वयं को करता है । इसीप्रकार यह जीव अध्यवसान से धर्म-अधर्म, जीव- अजीव और लोक- अलोक - इन सबरूप भी स्वयं को करता है । ( २७० ) दाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।। ये और इनसे अन्य अध्यवसान जिनके हैं नहीं । वे मुनीजन शुभ - अशुभ कर्मों से न कबहूँ लिप्त हों । ये अध्यवसानभाव व इसप्रकार के अन्य अध्यवसानभाव जिनके नहीं हैं; वे मुनिराज अशुभ या शुभ कर्मों से लिप्त नहीं होते ।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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