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________________ बंधाधिकार ७७ मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते । तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि। मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता ही मूदमति शुभ-अशुभ का बंधन करे॥ 'मैं सुखी करता दुःखी करता' यही अध्यवसान सब। पुण्य एवं पाप के बंधक कहे हैं सूत्र में। 'मैं मारता मैं बचाता हूँ यही अध्यवसान सब | पाप एवं पुण्य के बंधक कहे हैं सूत्र में। ___ मैं जीवों को सुखी-दुःखी करता हूँ – यह जो तेरी बुद्धि है, यही मूढबुद्धि शुभाशुभकर्म को बाँधती है।। मैं जीवों को सुखी-दु:खी करता हूँ - ऐसा जो तेरा अध्यवसान है, वही पुण्य-पाप का बंधक है। ___ मैं जीवों को मारता हूँ और जिलाता हूँ-ऐसा जो तेरा अध्यवसान है, वही पाप-पुण्य का बंधक है। (२६२) अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स। मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से। यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से| जीवों को मारो अथवा न मारो; कर्मबंध तो अध्यवसान से ही होता है - यह निश्चय से जीवों के बंध का संक्षेप है। (२६३-२६४) एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव । कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं ।। तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव। कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं ।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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