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________________ पूर्वरंग सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक्त्रमण का। तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ जिसने मोह को जीत लिया है, ऐसे साधु के जब मोह क्षीण होकर सत्ता में से नष्ट हो; तब उस साधु को निश्चयनय के जानकार क्षीणमोह कहते हैं। (३४-३५) सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ।। जह णाम कोवि पुरिसोपरदव्वमिणंति जाणिदुंचयदि। तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी।। परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे। तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है। जिसतरह कोई पुरुष पर जानकर पर परित्यजे। बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे॥ जिसकारण यह आत्मा अपने आत्मा से भिन्न समस्त पर-पदार्थों का 'वे पर हैं' - ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, त्याग करता है; उसी कारण प्रत्याख्यान ज्ञान ही है। - ऐसा नियम से जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था होना ही प्रत्याख्यान है, त्याग है; अन्य कुछ नहीं। जिसप्रकार लोक में कोई पुरुष परवस्तु को यह परवस्तु है' - ऐसा जानकर परवस्तु का त्याग करता है; उसीप्रकार ज्ञानी पुरुष समस्त परद्रव्यों के भावों को 'ये परभाव हैं' - ऐसा जानकर छोड़ देते हैं। (३६)....... णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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