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________________ गाथा समयसार ____ (३०).. णयरम्भिवण्णिदेजहण विरण्णोवण्णणाकदा होदि। देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा धुदा होंति ।। वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह। केवली-वन्दन नहीं है देह-वन्दन उसतरह। - जिसप्रकार नगर का वर्णन करने पर भी, वह वर्णन राजा का वर्णन नहीं हो जाता; उसीप्रकार शरीर के गुणों का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं हो जाता। (३१) जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ॥ जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा । वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा।। जो इंद्रियों को जीतकर आत्माको अन्य द्रव्यों से अधिक (भिन्न) जानते हैं; वे वस्तुत: जितेन्द्रिय हैं - ऐसा निश्चयनय में स्थित साधुजन कहते हैं। (३२) जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। तं जिदमोहं साहं परमट्टवियाणया बेंति ।। मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा । जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा को ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यभावों से अधिक जानता है, भिन्न जानता है; उस मुनि को परमार्थ के जाननेवाले जितमोह कहते हैं। (३३) जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं ।।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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