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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार १०७ णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स। ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को विघादो दु णिहिट्ठो।। जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु। तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु॥ रागो दोसो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा। एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी॥ ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन विषय में। इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस विषय में | ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन कर्म में। इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस कर्म में || ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन काय में। इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस काय में | सद्ज्ञान का सम्यक्त्व का उपघात चारित्र कां कहा। अन्य पुद्गल द्रव्य का ना घात किंचित् भी कहा। जीव के जो गुण कहे वे हैं नहीं परद्रव्य में। बस इसलिए सदृष्टि को है राग विषयों में नहीं। अनन्य है परिणाम जिय के राग-द्वेष-विमोह ये। बस इसलिए शब्दादि विषयों में नहीं रागादि ये ॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र अचेतन विषयों में किंचित्मात्र भी नहीं हैं, इसलिए आत्मा उन विषयों में क्या घात करेगा? इसीप्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र अचेतन कर्मों में भी किंचित्मात्र नहीं हैं; इसलिए आत्मा उन कर्मों में भी क्या घात करेगा? इसीप्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र अचेतन काय में भी किंचित्मात्र नहीं हैं; इसलिए आत्मा उन कायों में भी क्या घात करेगा? जहाँ दर्शन, ज्ञान और चारित्र का घात कहा है; वहाँ पुद्गलद्रव्य का
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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