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________________ १०० गाथा समयसारअसंयमी बनाते हैं। इस जीव को कर्मों द्वारा ही ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक का भ्रमण कराया जाता है। अधिक क्या कहें, जो कुछ भी शुभ और अशुभ है, वह सब कर्म ही करते हैं। इसप्रकार कर्म ही करता है, कर्म ही देता है और कर्म ही हर लेता है; जो कुछ भी करता है, वह सब कर्म ही करता है । इसप्रकार सभी जीव सर्वथा अकारक ही सिद्ध होते हैं। पुरुषवेद कर्मस्त्री का अभिलाषी है और स्त्रीवेद कर्म पुरुष की अभिलाषा करता है - ऐसी यह आचार्यों की परम्परागत श्रुति है। इसप्रकार हमारे उपदेश में तो कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं है; क्योंकि कर्म ही कर्म की अभिलाषा करता है - ऐसा कहा है। जो पर को मारता है और जो पर के द्वारा मारा जाता है; वह प्रकृति है, जिसे परघात नामक कर्म कहा जाता है। इसलिए हमारे उपदेश में कोई जीव उपघातक (मारनेवाला) नहीं है; क्योंकि कर्म ही कर्म को मारता है - ऐसा कहा गया है। ऐसे सांख्यमत का उपदेश जो श्रमण (जैन मुनि) प्ररूपित करते हैं, उनके मत में प्रकृति ही करती है; आत्मा तो पूर्णत: अकारक है - ऐसा सिद्ध होता है। __ अथवा यदि तुम यह मानते हो कि मेरा आत्मा अपने द्रव्यरूप आत्मा को करता है तो तुम्हारा यह मानना मिथ्या है; क्योंकि सिद्धान्त में आत्मा को नित्य और असंख्यातप्रदेशी बताया गया है, वह उससे हीन या अधिक नहीं हो सकता और विस्तार की अपेक्षा भी जीव को जीवरूप निश्चय से लोकमात्र जाने; क्या वह उससे हीन या अधिक होता है; यदि नहीं तो फिर वह द्रव्य को कैसे करता है ? अथवा ज्ञायकभाव तो ज्ञानस्वभाव में स्थित रहता है - यदि ऐसा माना जाये तो इससे आत्मा स्वयं अपने आत्मा को नहीं करता – यह सिद्ध होगा।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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