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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार उपदेश कर्म ही जिय भ्रमाते हैं ऊर्ध्व-अध-तिरलोक में । जो कुछ जगत में शुभ-अशुभ वह कर्म ही करते रहें । कर्म करते कर्म देते कर्म हरते हैं सदा । यह सत्य है तो सिद्ध होंगे अकारक सब आतमा || नरवेद है महिलाभिलाषी नार चाहे पुरुष को । परम्परा आचार्यों से बात यह श्रुतपूर्व है । अब्रह्मचारी नहीं कोई हमारे में । क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म चाहे कर्म को ॥ जो मारता है अन्य को या मारा जावे अन्य से । परघात नामक कर्म की ही प्रकृति का यह काम है | परघात करता नहीं कोई हमारे उपदेश में । क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म मारे कर्म को ॥ सांख्य के उपदेशसम जो श्रमण प्रतिपादन करें। कर्ता प्रकृति उनके यहाँ पर है अकारक आतमा ।। या मानते हो यह कि मेरा आतमा निज को करे । तो यह तुम्हारा मानना मिथ्यास्वभावी जानना || क्योंकि आतम नित्य है एवं असंख्य- प्रदेशमय । ना उसे इससे हीन अथवा अधिक करना शक्य है ।। विस्तार से भी जीव का जीवत्व लोकप्रमाण है । ना होय हीनाधिक कभी कैसे करे जिय द्रव्य को ॥ यदी माने रहे ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव में। तो भी आतम स्वयं अपने आत्मा को ना करे || जीव कर्मों द्वारा अज्ञानी किया जाता है और कर्मों द्वारा ही ज्ञानी भी किया जाता है, कर्मों द्वारा सुलाया जाता है और कर्मों द्वारा ही जगाया जाता है, कर्मों द्वारा ही सुखी किया जाता है और कर्मों द्वारा ही दुःखी किया जाता है; कर्म ही उसे मिथ्यात्व को प्राप्त कराते हैं और कर्म ही ९९
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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